Thursday, July 14, 2011

तुम हमें जख्म पर जख्म देते रहो, हम तो फूल बरसाते रहेंगे!!!

तुम हमें जख्म पर जख्म देते रहो, हम तो फूल बरसाते रहेंगे। तुम हमारे लिए लाख गढ्ढे खोदो, हम उसे पाटते जाएंगे। हमारी आर्थिक राजधानी के दिल पर फिर गहरे घाव हुए, लेकिन हम अपनी परंपरा पर अब भी कायम हैं। कसमें-वादे हम तोड़ नहीं सकते, चाहे कुछ भी हो जाए। क्योंकि हमने संघर्षों में जीना सीखा है। जब हम फिरंगियों की जलालत और दहशत झेल सकते हैं, तो ऐसे हमले और घाव तो आम बात है।

हमारे पुरखों ने हमें धैर्य करना सिखाया है। इसे हम मरते दम तक नहीं छोड़ सकते। कोई हमें कुछ भी कहे, हम ईंट का जवाब पत्थर से नहीं दे सकते। अगर हम ऐसा करेंगे तो यह हमारी आन-बान और मान का अपमान हो जाएगा। हमें सुभाष चन्द्र, भगतसिंह के बताए रास्ते पर नहीं बल्कि अहिंसा के मार्ग पर आंख बंद करके चलते जाना है...बस चलते जाना है। फिर आगे चाहे कांटे मिले, गड्ढे मिलें या फिर कुंआ। हमारे अंदर जोश-जज्बा और जुनून जो है। साथ ही सब्र, धैर्य का बांध भी हम लेकर ही चलते हैं, जो किसी के चाहने पर भी नहीं टूटने वाला।

सब्र हमारे अंदर कूट-कूट कर कैसे भरा है, यह तो किसी ने जाना ही नहीं। देश के किसी भी कोने में ब्लास्ट हुआ हो, सबसे पहले हमारे नेता पहुंचते हैं, पक्ष-विपक्ष सब मदद के लिए आगे आ जाते हैं। भाईचारा दिखाते हुए वोट बैंक की राजनीति भी चमकाना नहीं भूलते। गृहमंत्री हो..प्रधानंमत्री हों या फिर कोई बड़ा नेता। पहले तो घटना की निंदा होती है। फिर घटना स्थल पर पहुंचकर मुआयना..फिर घायलों से मिलना..फिर समय रहेगा तो मृतक के परिवार से भी मिलना। इनके मिलने-मिलाने के चक्कर में कई बार तो गरीब की जान भी चली जाती है।

हर जगह एक बात को कई बार सुना जा सकता है...देशवासियों से अपील है कि वो ऐसे समय में अपना धैर्य न खोएं। संयम बनाए रखें। हमने अलर्ट जारी कर दिया है, जांच टीमें लग गई हैं, फला..फला संगठन ने घटना की जिम्मेदारी ले ली है, स्कैच जारी हो गया है, जल्द पकड़े जाएंगे गुनहगार, पकड़ में आने के बाद लाखों-करोड़ो रु. खर्च हो जाएंगे सिर्फ उनकी मेहमाननवाजी पर, ज्यादा कुछ हुआ तो हम मुंह तोड़ जवाब देंगे, बस बात यहीं पर खत्म। आया राम गया राम वाली बात हो गई। फिर होगा तो देख लेंगे। तमाम तरह के वादे भी हो जाएंगे...ये करेंगे..वो करेंगे..ये बनाएंगे..वो बनाएंगे..अब ऐसा नहीं होने देंगे..वैसा नहीं होने देंगे। न जाने कितने प्रकार के कस्मे वादे खाकर डकार भी नहीं लेते...। इतना फेंका-फांकी करने के बाद फिर कोई आया और जख्म को हरा करके चल दिया..फिर वही पुरानी और रटा-रटाया बयान और कस्मे वादे..।

गांधीजी ने कहा भी था, कोई अगर एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा आगे कर देना। हम उनके बताए हुए रास्ते पर चल भी रहे हैं, एक-दो गाल तो दूर, हम तो शरीर के हर हिस्से पर जख्म खाने के लिए तत्पर हैं। आज मुंबई में हमारे ऊपर फिर मार पड़ी लेकिन हमारे सब्र का बांध नहीं टूटा, यही है हमारी पहचान। हर तरफ चीख-पुकार, शरीर के चीथड़े उड़ गए, लाशों की ढेर लग गई, बुरी तरह आहत हुए। पर देखो दुनिया वालों, हमारा धैर्य अब भी कायम है। क्या तुम्हारे अंदर है सब्र और धैर्य। नहीं। यह खिताब हम किसी और को हासिल नहीं करने देंगे। अमेरिका महाशक्ति होगा लेकिन सब्र हमारे जैसा और किसी में कहां।

आजादी के पहले और अब लगातार हम पर न जाने कितने तरह के हमले हुए। खून बहे। लेकिन हमने सब्र का दामन नहीं छोड़ा। कहीं भी धमाका हो, कितने भी आदमी मरे, लहूलुहान हो, घर का घर खत्म हो जाए, मांगे सूनी हो जाएं, वंश खत्म हो जाए, लेकिन हमें सब्र का पाठ पहले पढ़ाया जाता है। अरे यह तो भूल ही गया कि सब्र के लाखों रुपये भी मिलते हैं। नौकरियां भी देने का दिलासा मिलता है (मिले भले न, क्योंकि जेब भरने के लिए पैसा जो नहीं दे पाते)।

वाह रे सब्र..। धरती पर जब रावण ने हाहाकार मचाया था, तो श्रीराम ने अवतार लिया। कंस का अत्याचार बढ़ा तो कृष्ण धरती पर उतरे। इसी तरह से भगवान शिव, पार्वती, मां काली, मां दुर्गा ने जब-जब धरती पर किसी न किसी रूप में अवतार लिया। लेकिन इस कलयुग में क्या आतंक के खिलाफ, अत्याचार को खत्म करने के लिए कोई अवतार होगा। क्या हम इसी तरह से सब्र का घूंट पीते रहेंगे। क्या वो समय कभी नहीं आएगा जब हम सब्र का बांध तोड़कर आतंकवाद, करप्शन, अत्याचार के खिलाफ खड़े होंगे। क्या टूटेगा वह बांध, जो अभी तक हमने बनाकर रखा है...

Tuesday, July 5, 2011

चाय-पकौड़ों के बीच बारिश की वो गुदगुदाती यादें

गर्मी हो-सर्दी हो या फिर बारिश, सब अपने-2 समय में अपनी दबंगई दिखाने में जरा भी पीछे नहीं रहते। बिना एक दूसरे के सब अधूरे हैं। पकृति ने एक ऐसा सिस्टम बना दिया है कि सब अपने समय पर और बिन बुलाए मेहमान की तरह आ ही धमकते हैं। सर्दी के बाद गर्मी और उसके बाद बारिश सब का अपना एक अलग ही मजा है, जैसे बाजार में तरह-तरह की मिठाईयों का स्वाद होता है उसी तरह बदलते मौसम का मिजाज किसी मिठाई से कम नहीं होता है। और इसका स्वाद लिए बिना कोई नहीं रह सकता।


इस समय देश में बारिश का मौसम चल रहा है। मुझे तो भई बारिश उतनी अच्छी नहीं लगती लेकिन विरोध भी तो नहीं कर सकते। भोपाल में भी बारिश की पहली किस्त का हिसाब-किताब शुरु हो गया है। कभी रिमझिम तो कभी तेजी के साथ आसमान से पानी की बूंदों के गिरने के नजारे को कैद करने के लिए लोग न सिर्फ घरों से निकले बल्कि सबने भींगना भी पसंद किया।

करें भी क्यों नहीं पहली बारिश जो है, हर पहले सामान का अपना एक अलग ही मजा होता है। इतनी लबलबाती गर्मी के बाद राहत की बूंदों से भला कौन भागेगा। अब दुकानों की कड़ाहियों में तेल हरवक्त गर्म होता रहता है और हर आदमी में ऐसे समय पकौड़ों की चाह बढ़ जाती है। बदन में हल्की सी सिहरन और उसे दूर करने के लिए गर्मागर्म चाय और साथ में भंजिया मिल जाए तो वाह...वाह..क्या कहने। और ऐसे में बारिस-चाय-भंजिया के साथ पुरानी यादों को जहन में उतार लो तो वह सोने पर सुहागा हो जाता है।


भई आपके साथ कोई यादें जुड़ी हो या न जुड़ी हो लेकिन मैं तो उस बारिश को कभी नहीं भूल पाऊंगा। मैं बात कर रहा हूं मुंबई के बारिश की। बारिश में भीगते हुए 35 किलोमीटर दूर से आना, ऑफिस में आकर कपड़े बदलना, गर्मागर्म भंजिया मंगाकर खाना, दोस्तों संग ठहाके लगाकर चाय की चुस्कियां लेना आ..आहा..क्या मजा आता था, वाह गुरु...वो भी क्या बिंदास लाइफ थी। ऑफिस में आने वाला हर शख्स भीग जाता था लेकिन सभी मस्ती में डूबे रहते थे।

कैसी भी बारिश हो लोग ऑफिस आना नहीं छोड़ते थे। हमारी मैडम भी उन्हीं वीरों में से एक थी। वो जितनी वीर थी उतनी ही धाकड़, जिनसे पूरा ऑफिस अंदर ही अंदर डरता था। भीषण बारिश में ऑफिस आने के लिए तो मैडम के ऊपर जैसे भूत सवार हो जाता था। चाहे कितनी ही भीषण पानी की धार गिर रही हो वो ऑफिस पहुंच ही जाती थीं। एक बार तो उनके साथ बड़ा मजेदार वाकया हुआ। भयंकर बारिश, हर तरफ पानी ही पानी, छोटी गाड़ियां भी पानी में डूब गईं, बसों के पहिए थम गए, ट्रेंनों की आवाजाही चींटियों की तरह हो गई।

हमारी मैडम ऑफिस से करीब 5 किलोमीटर दूर ही रहती थीं, वैसे तो वो अक्सर अपनी मारूती एट-हंड्रेड से आती थी लेकिन उस दिन मैडम का पैर-कभी आगे कभी पीछे आ जा रहा था। ऑफिस में फोन करके हम सब का हालचाल वे हर मिनट ले रहीं थीं। लेकिन उनका दिल नहीं मान रहा था और वे घर के बाहर एक छतरी लेकर निकल पड़ीं।

बाहर आकर वे ऑटो रिक्शे का इंतजार करने लगीं लेकिन काफी देर बाद पता चला कि जो जहां है वहीं जम गया है, सबके पहिए बंद पड़े हैं। लेकिन हमारी मैडम भी कहां पीछे रहने वाली थी, उनका आत्मविश्वास जाग उठा और उन्होंने अपने कदम आगे बढ़ा दिया। कुछ दूर जाने पर एक ब्रिज पड़ता था, जिसके नीचे उस दिन मानो समुंद्र की धार फूट गई हो, उधर से हर कोई आना जाना बंद कर दिया था, क्योंकि पानी का बहाव बहुत ज्यादा था।

अब मैडम को कौन समझाए कि जब सब नहीं जा रहे तो आप भी अपना कदम पीछे खींच लेती, ऑफिस जाकर कौन सा तीर चला लेती। वे पानी की तेज धार में अपने कदम को रख दिया, उन्हें लगा कि उनका पैर हनुमान जी का पत्थर है, जो पानी में रखते ही रुक जाएगा लेकिन ऐसा उनका सोचना उस समय पानी-पानी हो गया जब वे थोड़ी दूर बिना हाथ-पैर मारे डूबती-चिल्लाती हुई पहुंच गई। उस समय किसी राहगीर ने उनका हाथ थामा, अरे भई हाथ थामने का गलत अर्थ न निकालना, उसने हाथ थामकर सिर्फ उन्हें पानी से बाहर निकाला और कुछ नहीं।

अब उनकी सांस ऊपर-नीचे और दिलों की धड़कने तेज हो गई थी, एक तो सबसे बड़ी बात हमारी मैडम शरीर से थोड़ी कमजोर थी। तभी तो वो पानी पर भारी न पड़ सकीं। भला हो उन भाई साब का जिसने हमारी मैडम की डूबती नैया को सहारा दिया लेकिन बाहर आने के बाद मैडम कंगाल हो चुकी थीं। कहने का मतलब, उनके छाते का ढांचा पूरी तरह से बिगड़ गया था और उनके एक पैर का चप्पल भी किसी और के पैर की शोभा बढ़ाने निकल लिया था।

इतनी आफत के बाद भी मैडम झांसी की रानी की तरह आगे बढ़ती गईं। एक हाथ में एक चप्पल, दूसरे हाथ में टूटा हुआ छाता, आखिर इतने संघर्ष की कोई तो निशानी चाहिए थी न। लोगों के पूछने पर आखिर किस मुंह से वे अपने संघर्ष की कहानी बयां करती। गिरते-पड़ते दोपहर के करीब दो बजे मैडम ऑफिस पहुंच ही गईं। वे पूरी तरह से थर-थर कांप रही थी, अंदर प्रवेश करते ही उन्होंने टूटा छाता मुझे पकड़ाया, बचा हुआ एक चप्पल चपरासी बेचारे को दे दिया, अब भला बताईए उस एक चप्पल का वह क्या करता, कोई प्रदर्शनी में लगाना था उसे जो थमा दिया। अब इस समय मैम कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी। उनकी हालत देख ऑफिस के लोग आसपास मधुमक्खियों की तरह घेरा बना लिए।

सबने यही कहा कि आपको क्या जरूरत थी यहां आने की। आप तो घर बैठे भी लैपटॉप पर काम कर सकती थीं। लेकिन मैडम को तो मिशाल कायम करनी थी। खैर उनका कांपना रुक नहीं रहा था, आनन-फानन में कैंटीन वाले ने गर्मा-गर्म चाय लाया, तीन-चार कप चाय चढ़ाने के बाद मैडम की जान में जान आई। मैडम को सही सलामत देख और मौका ताड़कर हमने भी गर्मागर्म पकौड़ी और चाय का ऑर्डर दे मारा क्योंकि पैसा मैडम के खाते में लिखवाना था।

अरे भई हम भी तो इंसान है, हमें भी ठंड़ी लग रही थी। इसके बाद गप्पसड़ाका करते हुए, खाते-पीते मौज मस्ती करते हुए सब अपने-अपने काम में लग गए। (बारिश के इस संघर्ष की कहानी जैसा मैडम ने ऑफिस आकर बताया था)।

खैर यह तो आज भी हम लोग करते हैं, भोपाल की बारिश को चाय और यादव के पकौड़े के साथ इंज्वाय करते हैं। लेकिन इतना जरूर है भारी बारिश में तर-बतर होकर मैडम की तरह ऑफिस आने का जोश अब यहां नहीं दिखता। अरे दिखेगा भी कैसे यहां की रोड़े जो पूरी तरह से सिमेंटेड हैं। हालांकि भोपाल के बाहर का नजारा हिला हुआ है जो बारिश में अपने नये स्वरूप को छोड़ पूर्वजन्म में चली जाती है।

गिरगिट की तरह रंग बदल रहा दहेज ‘’दानव’’

भई इसे घोर कलयुग नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे। पहले दहेज रूपी दानव ससुराल वालों की तरफ पहुंचकर अपना रंग दिखाता था लेकिन अब जिस कंधे पर बंदूक रखकर दहेज की मांग की जाती थी, आज वही बहू खुद आगे बढ़कर अपने पिता-भाई और मायके वालों से दहेज मांगने के लिए पति और सास-ससुर पर जोर दबरदस्ती कर रही है। ऐसा न करने पर अंजाम भी दिखा रही है। ऐसे ही एक खबर ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया कि अब दहेज रूपी दानव ने किस ढंग से गिरगिट की तरह रंग बदल लिया है। खबर थी...पति ने दहेज में कार नहीं मांगी तो पत्नी ने जहर खाने की कोशिश की...।

मैं तो पूरी तरह से हिल गया, मुझे लगा खबर की हेडिंग गलत है लेकिन अंदर झांककर देखा तो बहुत गहराई थी। यहां एक पत्नी अपने पति को इस बात के लिए कोस रही थी क्योंकि उसने दहेज में कार की मांग नहीं की थी। कल तक जहां बाप के घर से विदा होने के बाद बेटियां कसम खा लेती थी कि कुछ भी हो जाए बाप का सिर नीचा नहीं होने देंगे। ससुराल में दहेज के लिए प्रताड़ित होने पर भी बेटी अपने मां-बाप के सामने हाथ फैलाने से डरती थीं आज वही बहू-बेटियां समाज में हो रहे बदलाव के रंग में इतनी ज्याद रंग गई हैं कि सारे रिश्ते-नाते की मां की आंख हो गई है।

यहां पर वो गाना जिसमें एक बाप अपनी बेटी को घर से विदा करते समय रो-रोकर कहता है...बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले...वह सब भौतिकतावाद के हवनकुंड में झोंक दिए गए हैं।
शादी के बाद जो दहेज ससुराल वालों की तरफ से बहू को मोहरा बनाकर मांगा जाता था आज वही बहू सबको साइड में करके मां-बाप की खुशियों पर खुद लात रख रही है।

इसका कारण आज सिर्फ एक ही है समाज में भौतिकतावाद का बढ़ता दायरा। चीन में ट्रेन की रफ्तार सबसे तेज है लेकिन हमारे यहां भौतिक रूपी गाड़ी की स्पीड उस ट्रेन से भी ज्यादा तेज है जो हर घर से होकर गुजर रही है।

आज कुछेक को छोड़कर हर घर में दहेज की दबंगई चलती है। दहेज न लेने वालों को समाज में बहुत ही गिरी निगाह से देखा जाता है। अच्छा दहेज मिला है तो समाज में बहुत इज्जतदार हो अगर कम दहेज लिया तो वह आपको नीचा दिखाने के लिए काफी है। बाप अपनी बेटी के लिए वर की तलाश में जाने से पहले अपनी जेब टटोल लेता है कि हमारा बजट क्या है। इतने में सौदा होगा या नहीं, कम ज्याद भी होना पड़ता है। मंड़ी में जिस तरह से हर सामान की बोली लगती है उसी तरह समाज में दूल्हों की बोली लगती है।

लेकिन सोचने की बात है यह सौदा लड़के का परिवार करता है। दहेज का एमाउंट क्या होगा, कौन सी टीवी लेनी है, किस कंपनी का फ्रिज रहेगा, कूलर, डाइंग टेबल, प्रेस, बाइक या कार कौन से मॉडल की होगी..वगैरह-वगैरह। यह सब लड़के का परिवार ही डिसाइड कर लेता है और लड़की का बाप बेचारा चुपचाप उनकी सारी मांगे सिर झुकाकर मान लेता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि बिना दहेज के योग्य लड़का नहीं मिल सकता। लड़की ससुराल जाती है लेकिन दहेज रूपी दानव सबकुछ लेने के बावजूद भी मुंह बनाना नहीं छोड़ता।

सास-ससुर-ननद-देवर-जेठ यहां तक की पति भी दहेज के लालच में अपनी पत्नी को न सिर्फ प्रताड़ित करता है बल्कि अब तो आए दिन यह खबर आती ही रहती है कि दहेज के लिए बहू को जला दिया, काटकर फेंक दिया, प्रताड़ित होकर बहू ने आत्महत्या कर ली, घर से निकाल दिया, जहर खा ली, ट्रेन के नीचे आ गई, नदी में कूद गई, मारा-पीटा गया, लज्जित करना-जलील करना, दहेज के लिए खून के आंसू रो रही है बहू, आदि। लेकिन दहेज में क्यों नहीं मांगी कार...वाली खबर ने गंगा के बहने की दिशा ही बदल दी।

समय बदल रहा है, लोग बदल रहे हैं। इसके के साथ आज की बहू-बेटियां भी बदलती जा रही हैं। तुम्हारा बाप कितना पैसा गाड़ कर रखा है..क्या करेगा, ऊपर ले जाएगा क्या...कुछ मांग क्यों नहीं लाती। और नहीं लाओगी तो...। अब बात अंजाम की आ जाती है। और ऐसे में न जाने क्या क्या अनर्थ होने लगता है।

लेकिन इस खबर से क्या हमें मान लेना चाहिए कि दहेज का स्वरूप विकराल हुआ है लेकिन उसका रंग बदल गया है। जो बाप अपनी बेटी को विदा करने के पहले सबकुछ न्योछावर कर देता है और उसे ससुराल में हमेशा सुखी रहने की दुआ देता है आज वही बेटी अपने बाप की खुशियां छीनने के लिए पति को कोस रही है। अब फंस रहा है बेचारा पति। पति ने तो शादी के पहले यही सोचा होगा कि चलो सरकारी नौकरी है जो कुछ होगा अपने दम पर कर लेंगे। लेकिन उसकी सोच पर पानी फिर गया। पत्नी ने पति की गर्दन पर दोधारी तलवार रखकर पूछ ही लिया अब बताओ मेरे बाप से दहेज में कार क्यों नहीं मांगी थी। लेकिन यहां पर लड़की को दोषी ठहराना जल्दबाजी होगी क्योंकि समाज में पश्चिमी सभ्यता पूरी तरह से हावी हो चुकी है। और ऐसे में आज हर इंसान अपना दायरा भूलकर यह सोचने लगा है कि उसके पास जरूरत का हर सामान मौजूद हो। इसके लिए किसी भी रिश्ते का खून हो जाए तो हो जाने दो परवाह नहीं...।