Wednesday, June 29, 2011

सरकारी बिल्ली खा रही दूध की मलाई...

सुबह नींद में था तभी मकान मालकिन की तेज आवाज कानों में चुभने लगी। हालांकि यह पहली बार था जब मालकिन इतनी सुबह अपने आप से ही सवाल-जवाब किए जा रही थीं, वैसे तो उनकी दिनचर्या बड़े शांती के साथ बीतती थी लेकिन आज सुबह ऐसा क्या हुआ कि उनकी रफ्तार राजधानी एक्सप्रेस जैसी हो गई थी। अब तो यह सुनकर मेरी नींद में दरार आ गई और मैं आत्ममंथन में जुट गया।

उस मुद्दे की तलाश करने लगा कि आखिर हुआ क्या है, इसी बीच उनकी आवाज में थोड़ी तेजी आ गई। अब वे सरकार को गालियां देने में जुट गईं। भ्रष्ट हो चुकी है सरकार, निकम्मी है, इसके राज में कोई सुख-चैन नहीं ले सकता। आए दिन मंहगाई बढ़ रही है, दाम बढ़ रहे हैं, अभी फिर से दो रुपए दाम बढ़ा दिए लेकिन इसकी हालत सुधारने पर इनकी नानी मर जाती है, दूध और पानी में अंतर ही नहीं रहा।

अब तो क्वालिटी और खराब हो गई है, पहले मोटी मलाई पड़ जाती थी, घी-वी निकाल लेती थी, अच्छे से दही बन जाता था लेकिन अब तो लगता है जैसे सरकार के घर पर सारी मलाई चली जाती है। मुझे लगा कि दादी की बात में बहुत दम है, सचमुच यह मलाई कहीं तो जा रही है, कोई बिल्ली है जो यह मलाई चट कर रही है, वह चाहे सरकारी बिल्ली हो या फिर....। लेकिन अगर इसी तरह मलाई गायब होती रही और दाम बढ़ते रहे तो गरीब बेचारे तो गए काम से। उनके लिए दूध सपने की तरह हो जाएगा।

खैर सरकार से अच्छे तो हमारे पड़ोस के कल्लू चचा हैं जो कम से कम परिवार का पेट पालने के लिए दूध से मलाई निकालने और उसमें पानी का खेल खेलते हैं। लेकिन चचा का दूध और पानी में तालमेल कराने का अंजाद कुछ अलग ही है। सुबह गांव में जल्दी उठना और जानवरों की सेवा-सत्कार कर उनसे मेवा लेने के लिए बल्टी लेकर बैठ जाना, यह उनका नित्य कर्म था। इनका दूध बाजार में जाता था लेकिन गांव में चचा से दूध खरीदने के नाम पर लोग चार कदम दूर भागते थे।

लोगों का कहना था, ये दूध नहीं सिर्फ पानी बेचते हैं। मैंने जब उनसे दूध में पानी की बात पूछी तो जवाब बड़ा मजेदार मिला। वे कहते थे, ‘’क्या करें भईया, आजकल हमार भईंसिया खाना कम खात है और पानी ज्यादा पियत है, इहीं खातिर दूध पानी जैसा दिखत है। गर्मी बहुत पड़ रही है न, इहीं खातिर ईसब होत है। ठंड़ी आते ही सब ठीक हो जाई।‘’

एक दिन सुबह तड़के चचा की बल्टी खनकने से मेरी नींद खुल गई, मैं उठ बैठा और खिड़की से उनकी गतिविधियों पर नजर गड़ा दी। भैंस को खिलाने-पिलाने के बाद वे बाल्टी लेकर दूध निकालने बैठ गए। इसके बाद वे नल के नीचे अल्थी-पल्थी मार लिए। और फिर तो हद ही हो गई, उन्होंने एक हाथ बाल्टी में डाला, दूसरे हाथ से नल का हैंडल मारने लगे। बार-बार बाल्टी में हाथ डालकर वे दूध और पानी का अनुपात देख रहे थे। इस प्रयोग में उन्हें करीब पंद्रह मिनट लगे।

दूध और पानी में इंसाफ करके वे बड़े गर्व के साथ वहां से उठे ही थे कि मैं पीछे से पूछ बैठा, चचा...चचा ये क्या हो रहा था। दूध में पानी या पानी में दूध, आपने अंतर खत्म कर दिया। इसके बाद तो उनकी जो हालत हुई मैं बयां नहीं कर सकता, बेचारे शर्म के मारे पानी-पानी हो गए, गिड़गिड़ाने लगे कि यह बात किसी को बताना मत, मजबूरी में ऐसा करते हैं। कल से थोड़ा सुधार कर लूंगा। मैंने कहा ठीक है चचा। लेकिन दूसरे दिन फिर नल के नीचे दूध की बाल्टी।

बाद में पूछने पर चचा ने कहा कि क्या करें भईया ग्राहक की संख्या थोड़ी बढ़ गई, इसलिए ऐसा करना पड़ा। लेकिन कल्लू चचा के सामने यह करने की वजह कुछ और ही था। पर हमारी सरकार को आखिर किस परिवार का पेट पालना है जिसके लिए दाम बढ़ रहे हैं, मलाई गायब हो रही है। अगर ऐसे ही हर बरस दाम बढ़ाता रहा तो दूध सिर्फ शोरूम में देखने की चीज हो जाएगी। और ऐसे में अब सवाल यही है कि क्या सरकार ने भी बिल्लियां पाल रखी हैं जिसके लिए रोज मलाई मंगवानी पड़ती है?