इस इस बार गांव की मेरी यात्रा काफी अजीबोगरीब और कई मायनों में दिलचस्प भी रही। तारीख 11 नवंबर-सुबह 8.30 बजे ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में रातभर फटाफट काम निपटाया। सुबह जल्दी-जल्दी रूम पर पहुंच-नहाया और हबीबगंज स्टेशन जा धमका। सबसे पहले मैंने स्टेशन पर लगे स्टेटश बोर्ड पर ताका-झांकी की, यहां से ही मेरे साथ कुछ अजीब होने की शुरुआत हो चुकी थी। बोर्ड पर आंखे फेरने के बाद भी ट्रेन का कोई अता-पता नहीं दिखा। जबकि अन्य ट्रेनों का पूरा लेखा-जोखा बोर्ड पर आ रहा था।
दिमाग चकरा गया-दो-तीन बार टिकट देखा कि कहीं गलत डेट पर तो नहीं आ गया, लेकिन सब सही था। दिल की धकड़कन तेज हो गई थी, पता नहीं ट्रेन को क्या हो गया, कहीं यह फर्जी टिकट तो नहीं ले लिया, या यह ट्रेन रद्द तो नहीं हो गई। तमात तरह की बाते मन में उफान मार रही थी लेकिन तब तक दिमाग में आ गया कि इंक्वायरी खिड़की तो अभी बाकी ही है।
यहीं से नैया पार लगने की आस लिए, धक्का-मुक्की कर खिड़की पर हाथ रख ही दिया। अंदर साब बड़ी तल्लीनता के साथ लोगों की परेशानियां दूर कर रहे थे, मैंने भी अपना दुख-दर्द बयां कर दिया। लेकिन एलटीटी स्पेशल ट्रेन की दशा और दिशा पूछा ही था कि सामने से गरम हवा आने लगी, साब तो आंखे तरेर रहे थे, जैसे मैंने कोई बड़ा अपराध कर दिया हो।
बड़े साब कुछ देर तक तो मुझे ऊपर से नीचे तक आंखे फाड़कर देखते रहे। मुझे लगा शायद कुछ ऊंटपटांग बक दिया, साथ में खड़े दोस्त से कंफर्म किया लेकिन मैं सही निकला। ऐसा लगा जैसे साबजी इस ट्रेन का नाम पहली बार सुन रहे थे। मुंह मटकाना...कंप्यूटर में तांक झांक करना..मुझसे टिकट मांगना...बार-बार फोन घुमाकर किसी से घचर-पचर करना...सबकुछ अजीब था। खुद तो पसीने से भींग रहे थे, ठंड़ी में मुझे भी कुछ इसी तरह का एहसास दिलवा रहे थे।
सरजी बैठे तो थे इंक्वायरी कांउटर पर लेकिन वे सप्ताह में एक दिन चलने वाली इस स्पेशल ट्रेन से बिल्कुल अज्ञान थे। तभी तो बेचारे इतना पानी-पानी हो रहे थे। लेकिन आधे घंटे की उठा-पटक के बाद इनकी मेहनत ने अपना रंग दिखा दिया, और उन्हें ट्रेन के बारे में सारी जानकारी मिल गई। फिर क्या था बड़ी उत्सुकता के उन्होंने मेरे मुंह पर मेरा टिकट दे मारा और पूरी ट्रेन की यथास्थिति बयां कर दी। ट्रेन पूरे डेढ़ घंटे लेट थी। लेकिन इंतजार की अवधि बढ़ती ही गई...लगभग तीन घंटे का इंतजार। रातभर जगने से लग रही झपकी को खत्म करने के लिए कॉफी और चाय की चुस्की लेता रहा।
एस-2 में सीट नंबर 51। किसी ने बताया एकदम आगे की तरफ यह डिब्बा लगता है। सामान लेकर अड्डे पर जम, टकटकी लगा दी। और कुछ ही पल में वह दिख गई..दिख गई..अरे आ गई...आ गई...मोगैंबो खुश हो गया। लेकिन यह क्या, यहां भी अजीब। ट्रेन प्लेटफॉर्म पर गतिमान ही थी कि बड़ा झटका लग गया, पूरी बोगी ही उल्टी लग गई थी, आगे का पीछे और पीछे का आगे। अब तो बोल्ट की तरह दौड़ लगानी पड़ गई...हांफते-हांफते हालत खराब..इतना तेज कभी नहीं दौड़ा था। लेकिन समय रहते मंजिल मिल गई। ऊपर की सीट थी, सामान रखा और बिना कुछ सोचे-समझे चैन की नींद लेने के लिए पैर फैला दिया।
कुंभकर्णी नींद ऐसी लगी कि पता ही नहीं चला शाम के 6 कब बज गए। आंख मींजते हुए उठा, अगल-बगल वालों से गाड़ी की स्थिति के बारे में पूछा तो वो भी घूरने लगे। लेकिन थोड़ा रुकने के बाद गुर्राकर नीचे बैठे एक जनाब ने दयादृष्टि दिखाई और कहा-जनाब यह स्पेशल ट्रेन पूरे पांच घंटे लेट चल रही है। यहां भी अजीब तब लगा जब लोग बताने लगे कि हर मालगाड़ी के क्रॉस होने के बाद ही हमारी गाड़ी को हरी झंड़ी मिल रही है। सभी गाली दे रहे थे, साला नाम है स्पेशल लेकिन है पैसेंजर से भी बदतर। पैदल चल दूंगा लेकिन अब कभी स्पेशल के चक्कर में नहीं पड़ूंगा।
मैं भी थोड़ा परेशान हुआ लेकिन फिर यह सोचा कि रात में पहुंचकर वैसे भी क्या करूंगा। यात्रा का मजा लो। लेकिन मेरे मजे का आइडिया अब डर में बदल रहा था। कानपुर के पहले एक स्टेशन पड़ता है उरई। यहां पर मटकी में रसगुल्ला बड़ा फेमस है। पांच रुपया पर पीस। भूख लगी थी, पूरा मटका ही खरीद लिया। इसमें 15 पीस थे। सबके सब चट कर गया। हालांकि एक साथ यह नहीं खाया लेकिन धीरे-धीरे करके सब निपटा दिया, क्योंकि भूख का भंवर काफी गहरा हो गया था।
6.30 बजे गाड़ी उरई में खड़ी थी, वहां से कानपुर पहुंचने में लगभग 3 घंटे लगने वाला था, जैसा कि बताया जा रहा था। लेकिन जब एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच कोई गाड़ी दस बार स्टे करेगी तो खाक समय से कोई पहुंचेगा। लगभग 12 बजे गाड़ी कानपुर पहुंची। यहां पहुंचते ही मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। क्योंकि यहां भी कुछ अजीब हो गया। पूरी बोगी ही खाली हो गई। सन्नाटा छा गया, बचे सिर्फ 5 लोग। गुदगुदाती ठंड़ में नींद भी आ रही थी, डर भी लग रहा था कि पता नहीं, कब क्या होगा।
भोपाल से चलते टाइम किसी ने यह भी बता दिया था कि कानपुर से इलाहाबाद के बीच थोड़ा सतर्क रहना। लेकिन यह बात यूं ही में टाल दी थी कि कोई बात नहीं 10 बजे तक तो घर पहुंच जाऊंगा। डर वाली कोई बात नहीं लेकिन यह क्या सब उल्टा हो गया। पांच लोग वो भी अनजान, उनके पास जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। पहले नीचे की सीट पर बैठा था लेकिन मौके की नजाकत को देख ऊपर की सीट पर जा बैठा। सामान ऊपर की सीट से नीचे रख लिया था लेकिन फिर से शिफ्टिंग कर ली।
गेट के साथ अगल-बगल की खिड़कियों को भी बंद कर दिया था। कानपुर से थोड़ी दूर जाने पर भी अजीब दास्तां गुजरी। यहां गाड़ी रुकी, दूसरे गेट से दो साधु महाराज अंदर पधारे। लेकिन इनके पहनावे ने हालत फिर से खस्ता कर दी। रात के एक बजे...जबरदस्त ठंड़ लेकिन इनका बदन पूरी तरह से खाली।
हाथ में बड़ा सा त्रिशूल, दूसरी हाथ में एक सामान से भरी बोरी। लंबे बाल और दाढ़ी। चेहरा एकदम खूंखार। अब क्या करूं। देखते ही चेहरे पर चद्दर डाल ली और चद्दर का एक कोना उठाकर धीरे-2 उनकी गतिविधियों पर नजर डालता रहा। कुछ देर बाद ये लोग भी सो गए। थोड़ी राहत मिली।
सुबह के 3.30 बजे ट्रेन जैसे-तैसे इलाहाबाद पहुंची तो जाकर जान में जान आई। लेकिन अब भी जहन में एक सवाल कौंध रहा था कि स्पेशल के नाम पर लोगों के साथ यह कैसा मजाक किया जा रहा है। जिस ट्रेन को रात 9.30 बजे पहुंचनी थी, वह सुबह 3.30 बजे पहुंच रही है। जितने लोग ट्रेन में थे सब कहीं न कहीं से परेशान दिख रहे थे, तौबा कर रहे थे। जो लोग स्टेशन पर अपने सगे-संबंधियों को लेने आये तो उनपर भी डांट पड़ रही थी। अरे टिकट बुक कराने को लेकर।
साथ में लोग अपने बच्चों, एजेंटो को कोस रहे थे कि पता नहीं क्या देखकर इस ट्रेन में टिकट करवा दिया। लेकिन मैं किसी को नहीं कोस सकता था क्योंकि इस ट्रेन में मैंने खुद ही टिकट करवाया था। फिर भी तकलीफ हुई कि क्या यही है हमारी इंडियन ट्रेन। ऐसे ही हम पड़ोसियों से आगे निकलेंगे। हालांकि मैंने भी कान पकड़ लिया था कि अब कभी भी इस तरह का स्पेशल नहीं बनूंगा।
दिमाग चकरा गया-दो-तीन बार टिकट देखा कि कहीं गलत डेट पर तो नहीं आ गया, लेकिन सब सही था। दिल की धकड़कन तेज हो गई थी, पता नहीं ट्रेन को क्या हो गया, कहीं यह फर्जी टिकट तो नहीं ले लिया, या यह ट्रेन रद्द तो नहीं हो गई। तमात तरह की बाते मन में उफान मार रही थी लेकिन तब तक दिमाग में आ गया कि इंक्वायरी खिड़की तो अभी बाकी ही है।
यहीं से नैया पार लगने की आस लिए, धक्का-मुक्की कर खिड़की पर हाथ रख ही दिया। अंदर साब बड़ी तल्लीनता के साथ लोगों की परेशानियां दूर कर रहे थे, मैंने भी अपना दुख-दर्द बयां कर दिया। लेकिन एलटीटी स्पेशल ट्रेन की दशा और दिशा पूछा ही था कि सामने से गरम हवा आने लगी, साब तो आंखे तरेर रहे थे, जैसे मैंने कोई बड़ा अपराध कर दिया हो।
बड़े साब कुछ देर तक तो मुझे ऊपर से नीचे तक आंखे फाड़कर देखते रहे। मुझे लगा शायद कुछ ऊंटपटांग बक दिया, साथ में खड़े दोस्त से कंफर्म किया लेकिन मैं सही निकला। ऐसा लगा जैसे साबजी इस ट्रेन का नाम पहली बार सुन रहे थे। मुंह मटकाना...कंप्यूटर में तांक झांक करना..मुझसे टिकट मांगना...बार-बार फोन घुमाकर किसी से घचर-पचर करना...सबकुछ अजीब था। खुद तो पसीने से भींग रहे थे, ठंड़ी में मुझे भी कुछ इसी तरह का एहसास दिलवा रहे थे।
सरजी बैठे तो थे इंक्वायरी कांउटर पर लेकिन वे सप्ताह में एक दिन चलने वाली इस स्पेशल ट्रेन से बिल्कुल अज्ञान थे। तभी तो बेचारे इतना पानी-पानी हो रहे थे। लेकिन आधे घंटे की उठा-पटक के बाद इनकी मेहनत ने अपना रंग दिखा दिया, और उन्हें ट्रेन के बारे में सारी जानकारी मिल गई। फिर क्या था बड़ी उत्सुकता के उन्होंने मेरे मुंह पर मेरा टिकट दे मारा और पूरी ट्रेन की यथास्थिति बयां कर दी। ट्रेन पूरे डेढ़ घंटे लेट थी। लेकिन इंतजार की अवधि बढ़ती ही गई...लगभग तीन घंटे का इंतजार। रातभर जगने से लग रही झपकी को खत्म करने के लिए कॉफी और चाय की चुस्की लेता रहा।
एस-2 में सीट नंबर 51। किसी ने बताया एकदम आगे की तरफ यह डिब्बा लगता है। सामान लेकर अड्डे पर जम, टकटकी लगा दी। और कुछ ही पल में वह दिख गई..दिख गई..अरे आ गई...आ गई...मोगैंबो खुश हो गया। लेकिन यह क्या, यहां भी अजीब। ट्रेन प्लेटफॉर्म पर गतिमान ही थी कि बड़ा झटका लग गया, पूरी बोगी ही उल्टी लग गई थी, आगे का पीछे और पीछे का आगे। अब तो बोल्ट की तरह दौड़ लगानी पड़ गई...हांफते-हांफते हालत खराब..इतना तेज कभी नहीं दौड़ा था। लेकिन समय रहते मंजिल मिल गई। ऊपर की सीट थी, सामान रखा और बिना कुछ सोचे-समझे चैन की नींद लेने के लिए पैर फैला दिया।
कुंभकर्णी नींद ऐसी लगी कि पता ही नहीं चला शाम के 6 कब बज गए। आंख मींजते हुए उठा, अगल-बगल वालों से गाड़ी की स्थिति के बारे में पूछा तो वो भी घूरने लगे। लेकिन थोड़ा रुकने के बाद गुर्राकर नीचे बैठे एक जनाब ने दयादृष्टि दिखाई और कहा-जनाब यह स्पेशल ट्रेन पूरे पांच घंटे लेट चल रही है। यहां भी अजीब तब लगा जब लोग बताने लगे कि हर मालगाड़ी के क्रॉस होने के बाद ही हमारी गाड़ी को हरी झंड़ी मिल रही है। सभी गाली दे रहे थे, साला नाम है स्पेशल लेकिन है पैसेंजर से भी बदतर। पैदल चल दूंगा लेकिन अब कभी स्पेशल के चक्कर में नहीं पड़ूंगा।
मैं भी थोड़ा परेशान हुआ लेकिन फिर यह सोचा कि रात में पहुंचकर वैसे भी क्या करूंगा। यात्रा का मजा लो। लेकिन मेरे मजे का आइडिया अब डर में बदल रहा था। कानपुर के पहले एक स्टेशन पड़ता है उरई। यहां पर मटकी में रसगुल्ला बड़ा फेमस है। पांच रुपया पर पीस। भूख लगी थी, पूरा मटका ही खरीद लिया। इसमें 15 पीस थे। सबके सब चट कर गया। हालांकि एक साथ यह नहीं खाया लेकिन धीरे-धीरे करके सब निपटा दिया, क्योंकि भूख का भंवर काफी गहरा हो गया था।
6.30 बजे गाड़ी उरई में खड़ी थी, वहां से कानपुर पहुंचने में लगभग 3 घंटे लगने वाला था, जैसा कि बताया जा रहा था। लेकिन जब एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच कोई गाड़ी दस बार स्टे करेगी तो खाक समय से कोई पहुंचेगा। लगभग 12 बजे गाड़ी कानपुर पहुंची। यहां पहुंचते ही मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। क्योंकि यहां भी कुछ अजीब हो गया। पूरी बोगी ही खाली हो गई। सन्नाटा छा गया, बचे सिर्फ 5 लोग। गुदगुदाती ठंड़ में नींद भी आ रही थी, डर भी लग रहा था कि पता नहीं, कब क्या होगा।
भोपाल से चलते टाइम किसी ने यह भी बता दिया था कि कानपुर से इलाहाबाद के बीच थोड़ा सतर्क रहना। लेकिन यह बात यूं ही में टाल दी थी कि कोई बात नहीं 10 बजे तक तो घर पहुंच जाऊंगा। डर वाली कोई बात नहीं लेकिन यह क्या सब उल्टा हो गया। पांच लोग वो भी अनजान, उनके पास जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। पहले नीचे की सीट पर बैठा था लेकिन मौके की नजाकत को देख ऊपर की सीट पर जा बैठा। सामान ऊपर की सीट से नीचे रख लिया था लेकिन फिर से शिफ्टिंग कर ली।
गेट के साथ अगल-बगल की खिड़कियों को भी बंद कर दिया था। कानपुर से थोड़ी दूर जाने पर भी अजीब दास्तां गुजरी। यहां गाड़ी रुकी, दूसरे गेट से दो साधु महाराज अंदर पधारे। लेकिन इनके पहनावे ने हालत फिर से खस्ता कर दी। रात के एक बजे...जबरदस्त ठंड़ लेकिन इनका बदन पूरी तरह से खाली।
हाथ में बड़ा सा त्रिशूल, दूसरी हाथ में एक सामान से भरी बोरी। लंबे बाल और दाढ़ी। चेहरा एकदम खूंखार। अब क्या करूं। देखते ही चेहरे पर चद्दर डाल ली और चद्दर का एक कोना उठाकर धीरे-2 उनकी गतिविधियों पर नजर डालता रहा। कुछ देर बाद ये लोग भी सो गए। थोड़ी राहत मिली।
सुबह के 3.30 बजे ट्रेन जैसे-तैसे इलाहाबाद पहुंची तो जाकर जान में जान आई। लेकिन अब भी जहन में एक सवाल कौंध रहा था कि स्पेशल के नाम पर लोगों के साथ यह कैसा मजाक किया जा रहा है। जिस ट्रेन को रात 9.30 बजे पहुंचनी थी, वह सुबह 3.30 बजे पहुंच रही है। जितने लोग ट्रेन में थे सब कहीं न कहीं से परेशान दिख रहे थे, तौबा कर रहे थे। जो लोग स्टेशन पर अपने सगे-संबंधियों को लेने आये तो उनपर भी डांट पड़ रही थी। अरे टिकट बुक कराने को लेकर।
साथ में लोग अपने बच्चों, एजेंटो को कोस रहे थे कि पता नहीं क्या देखकर इस ट्रेन में टिकट करवा दिया। लेकिन मैं किसी को नहीं कोस सकता था क्योंकि इस ट्रेन में मैंने खुद ही टिकट करवाया था। फिर भी तकलीफ हुई कि क्या यही है हमारी इंडियन ट्रेन। ऐसे ही हम पड़ोसियों से आगे निकलेंगे। हालांकि मैंने भी कान पकड़ लिया था कि अब कभी भी इस तरह का स्पेशल नहीं बनूंगा।
aji hamre bhaarteey rail ki to vaise misaal di jati hai...fir ye to keval ek bangi bhar hai...unse puchhiye jo mumbai se bihaar ki yaatra karte hain.
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