भोपाल से प्रतापगढ़ तक स्पेशल ट्रेन का सफर मेरे लिए मुसीबत बन गई। शुरुआत लेटलतीफ से हुई। ट्रेन का टाइम सुबह 8.30 बजे, लेकिन रास्ते भर खाते-पीते वह 11.45 बजे आई। एस-2 में ऊपर की सीट। सामान पटककर ऊपर जा बैठा, बिना कुछ इधर-उधर किए चद्दर निकाल मुंह पर डाला और खर्राटे भरने लगा। चूंकि रातभर ऑफिस में काम किया था तो भयंकर नींद आनी स्वाभाविक थी। कुंभकर्ण की तरह ऐसे सोया कि पता ही नहीं चला शाम के 6 कब बज गए। आंख मींजते उठा, नीचे वालों से गाड़ी की स्थिति पूछी, तो वो घूरने लगे। थोड़ा रुकने के बाद गुर्राकर एक जनाब ने दयादृष्टि दिखाई और कहा-भाई यह स्पेशल पूरे पांच घंटे लेट है।
हर मालगाड़ी के क्रॉस होने के बाद इसको हरी झंड़ी मिल रही है। सभी गाली दे रहे थे, साला नाम है स्पेशल लेकिन है पैसेंजर से भी बदतर। पैदल चल दूंगा लेकिन अब कभी इसके चक्कर में नहीं पड़ूंगा..तमाम तरह की ऊट-पटांग बातें निकल रही थीं। मैं भी ऊपर से नीचे आ गया। इधर-उधर देखा ही था कि मन में एक अजीब सी डर पैदा हो गई। गिने-चुने लोग वहां पर दिख रहे थे। पूरी बोगी का चक्कर लगाने के बाद जब गिनती की तो होश पाख्ता हो गए।
बोगी नंबर- 2 में सवारी सिर्फ 50। यहीं से भयानक डर की शुरुआत हो चुकी थी। लगभग सात बजे ट्रेन उरई स्टेशन (कानपुर के पहले) पहुंची। मटकी का रसगुल्ला यहां बड़ा फेमस है। पांच रु. पर पीस। भूख लगी थी, 15 पीस वाला मटका ही खरीद लिया और धीरे-धीरे करके सब निपटा दिया, क्योंकि भूख का भंवर काफी गहरा हो गया था।
यहां से कानपुर पहुंचने में लगभग 3 घंटे लगना था, जैसा कि बताया गया। लेकिन जब एक से दूसरे स्टेशन के बीच कोई गाड़ी दस बार स्टे करेगी, तो खाक समय से कोई पहुंचेगा! लगभग 12 बजे गाड़ी कानपुर पहुंची। अब मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी। पूरी बोगी वीरान। अजीब सा सन्नाटा। घूमकर बोगी का मुआयना किया तो सिर्फ 5 लोग दिखे। गुदगुदाती ठंड़ में नींद आ रही थी, डर भी लग रहा था कि पता नहीं, कब क्या होगा। भोपाल से चलते टाइम कुछ भाई लोगों ने बताया था कि कानपुर से इलाहाबाद के बीच जहरखुराने वाले ज्यादा एक्टिव होते हैं। लेकिन मैंने बहादुरी के पींगे हांकते हुए यह बात यूं ही में टाल दी थी। पांच लोग वो भी अनजान, उनके पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कोई पुलिसवाला भी नहीं था। ट्रेन कहीं भी खड़ी हो जा रही थी। कभी आउटर तो, कभी सूनसान खेत के पास। मौके की नजाकत को देख नीचे की बजाय ऊपर वाली सीट फिर से थाम ली। सामान भी ऊपर शिफ्ट कर दिया।
गेट के साथ-2 खिड़कियों का भी शटर डाउन कर दिया। कानपुर से थोड़ी दूर जाने के बाद हालत और खराब हो गई। एक मालगाड़ी को क्रास कराने के चक्कर में स्पेशल को ब्रेक लग गया। गाड़ी रुकते ही, दूसरे गेट से दो साधु महाराज का आगमन हुआ। इनका पहनावा काफी डरावना था। वो जहरखुरानी वाली बात याद आ गई लेकिन अब चुपचाप दुबके रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। रात के एक बजे, जबरदस्त ठंड़ लेकिन इनका बदन पूरी तरह से खाली। एक हाथ में बड़ा त्रिशूल, दूसरे में वजनी बोरी। लंबे बाल और दाढ़ी। चेहरा खूंखार। डरना लाजमी था। इनके दहशत भरे चेहरे को देख, अपने चेहरे पर चद्दर डाल ली और चद्दर का एक कोना उठाकर इनकी गतिविधियों को देखता रहा।
ये कभी तंबाकू ठोंकते, कभी गेट के पास जाते। अब गला सूख रहा था, बोतल का पानी भी खत्म हो चुका था। कुछ भी, कभी भी हो सकता था लेकिन थोड़ी देर बाद सबकुछ सामान्य हो गया। क्योंकि ये भाई लोग दिखने में दबंग जरूर थे पर ठंड़ को बर्दाश्त न कर सके। अब खर्राटे की आवाज सुनाई देने लगी, इनकी गर्जना के आगे अब मेरी नींद फुर्र हो चुकी थी। और आखिरकार डर की गाड़ी लगभग अल सुबह 3.30 बजे जैसे-तैसे इलाहाबाद पहुंच ही गई। अब चेहरे पर प्रसन्नता का भाव था, सारा गिला-शिकवा और डर खत्म हो चुका था लेकिन मुसीबत की ये स्पेशल मेरे लिए यादगार जरूर बन गई।