Sunday, May 10, 2015

माफ करना मां, तुम्हारी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं है...

आज मदर्स डे है। लेकिन इतनी दूर बैठकर फोन पर मैं सिर्फ मां का आर्शीवाद ही ले पाया। काश इस दिन मैं उसके पास होता। आज भी सबसे पहले उसने पूछा कुछ चाय-नाश्ता हुआ या नहीं। मैं उसके चाय-नाश्ते के बारे में पूछने में अक्सर पीछे रह जाता हूं। तबीयत ठीक है या नहीं मां पहले पूछ लेती हैं, मैं यहां भी पीछे रह जाता हूं। अगर किसी दिन मेरी तबीयत खराब हो जाती है, तो गांव में बैठी मां बैचेन हो जाती है। रात को उसको नींद नहीं आती है। सुबह-सुबह फोन आता है, सब ठीक तो है न...। मैं अक्सर झूठ बोल देता हूं।


लगता है अगर बता दिया तो मां परेशान हो जाएगी। जबकि दूसरों से पता चलता है कि मां तो पहले से ही पूरी रात बेचैन थी। अंदर से एक सवाल उठता है कि आखिर इसको कैसे पता चल जाता है। फिर सोचता हूं कि मां-बच्चे का कनेक्शन इतना तगड़ा होता है कि इसको किसी फोन या किसी आदमी के द्वारा सूचना देने की जरूरत नहीं है। बच्चा अगर परेशान भी है तो मां को मालूम चल ही जाता है। कभी-कभी सोचता हूं भगवान ने धरती पर मां जैसी अद्भुत मूर्ति कैसे बना दी। मां को बनाने में भगवान ने कितना रिसर्च किया होगा। कई वर्ष लगे होंगे तब जाकर मां का स्वरूप निर्मित हुआ होगा।


पिछले 8 साल से मैं बाहर हूं। लेकिन बीते दिनों को याद करता हूं तो मां के लिए सीना और गर्व से चौड़ा हो जाता है। पिता जी किसान, मां हाउस वाइफ, हम चार भाई-बहन और एक दादी। खेत भी बहुत ज्यादा नहीं। फिर भी खान-खर्च और पढ़ाई के लिए भगवान दे ही देते थे। इन दिनों मां की वो ममता देखी है जो जिंदगी में कभी नहीं भुलाई जा सकती है। रात के समय पापा खाना खा लेते, फिर दादी, फिर हम चारों भाई-बहन एक-एक करके पेट भर लेते थे। मां बड़े प्यार से खिलाती थी, उसको कई बार पता होता था कि इन सबके बाद रसोईं में कुछ भी नहीं बचेगा, बावजूद इसके बिना झल्लाए, बिना सकुचाए वो प्यार से खिलाती जाती थी।


हम भी बैठे मूर्ख, अज्ञानी आंख बंद करके ठूंसते चले जाते थे। यह भी नहीं देखते थे कि मां के लिए भी कुछ बच भी रहा है या नहीं...। डकार लेकर जब उठते थे तो रसोई पर नजर जाती थी। कभी-कभार कुछ रोटी तो कभी थोड़े बहुत चावल बचते थे। पूछने पर, मां तुम कैसे खाओगी। सब्जी और दाल तो खत्म हो चुका है। वो जवाब क्या देती है...अरे मुझे तो दाल और सब्जी पसंद ही नहीं है। ये तो जबरदस्ती खा लेती हूं। मुझे तो अचार और चटनी मिल जाए और कुछ मिले या न मिले। उस समय हम मूर्ख यह नहीं समझ पाते थे कि मां हमारे लिए झूठ बोल रही है। लेकिन आज वो दिन याद आने पर समझ में आता है कि मां वो नाटक क्यों करती थी। वो बहाना इसलिए बनाती थी ताकि हम सब का पेट भर सके।


मां को लेकर न जाने ऐसे कितने ही किस्से हैं। आज एक-एक करके सभी याद आते हैं। अंदर ही अंदर सुबक लेता हूं। मां को दिल से याद कर लेता हूं। अपने आपसे पूछता हूं कि मां आखिर तुमने इतने कष्ट हम सबके लिए क्यों सहे। फिर अंदर से एक आवाज आती है, मां तो ऐसे ही होती है। हम बच्चे ही बिगड़ जाते हैं, मां तो आखिर मां ही है।

Wednesday, February 11, 2015

दिल्ली चुनावः ई कऊनव रॉन्ग नंबर लग गवा...

रॉन्ग नंबर लग गवा...। ससुरा सुबह से ही माइंडवा मा सुनामी सा झटका लग रहा है। समझ में नहीं आवत है की ई का हो रहा है। अरे हम बात करत बा ऊ केजरीवाल का। अरे..ससुरा देखते..देखते कहां से कहां पहुंच गवा...। कुछ तो रॉन्ग नंबर जरूर लग गवा बा। ऐसा होई न सकत कि इतना बड़ा सुनामी आवा हो...। सुनामी में भी अपने पीछे कुछ तो छोड़ जात है...लेकिन ई सुनामी में तो कऊनव तिनका न दिखत बा...। ई केजरी वाल सुनामी बनकर सबहिंका हजम कर गवा। मोदी-राहुल और ऊ सोनिया सबहिंका रॉन्ग नंबर लग गवा...। बड़ी-बड़ी रैलियां की थीं, बड़े-बड़े वादे किये थे...। बड़े-बड़े दिलासे दिलाये थे...। लेकिन दिल्ली की जनता मूरख नहीं न बा। बहुत हो गया पीके का डायलॉग, चलो मुद्दे पर आ जाते हैं...

दिल्ली विधानसभा चुनाव के इस रिजल्ट को देखकर देश ही नहीं पूरे विश्व मीडिया या कह लें कि हर राजनीतिक गलियारे में चर्चाओं का बाजार गर्म है। केजरीवाल की इतनी भयानक शायद भयानक शब्द भी छोटा पड़ जाएगा...। जीत कोई पचा नहीं पा रहा है। स्वयं केजरीवाल को भी इतनी संख्या (67) किसी सपने से कम नहीं लग रहा है। वो खुद इतनी बड़ी संख्या के पीछे का कारण खोज रहे होंगे। खैर केजरीवाल ने तो क्रिकेट मैच की तरह कई रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया। उधर मोदी एंड टीम की परखच्चे उड़ चुके हैं। जितनी भयानक जीत उतनी ही भयानक हार...। यह संयोग बहुत ही कम देखने को मिलता है। पूरे राजनीति इतिहास को अगर उलट कर देखा जाए तो शायद दो-तीन ही ऐसे मौके आये, जहां पर ऐसा मंजर देखने को मिला था। एक बार शायद राजीव गांधी, राजस्थान में वसुंधरा राजे भी ऐसा कारनामा कर चुके हैं। वो इतिहास था, लेकिन ये रिकॉर्ड इतिहास के पन्ने पर ज्यादा प्रभावी तौर पर याद किया जाएगा। ऐसा मेरा मानना है।

फेंकाफांकी करने वालों को औकात में रहने का सबक भी मिल ही चुका होगा...। खैर न भी मिला हो तो मिल जाएगा। ये जनता है जो सब जानती है...। कुछ लोग मूर्ख बन जाते हैं, लेकिन कुछ लोग मूर्ख बना भी देते हैं। दिल्ली की जनता ने यही किया। पिछली बार मूर्ख बनाकर कुछ सीटें तो हासिल कर ली थीं, लेकिन इस बात कोई पैंतरा काम नहीं आया। जनता को बड़ी-बड़ी बातें नहीं, रिजल्ट चाहिए। बिना रिजल्ट दिखाए आप सिर्फ सपना दिखाने पर जोर दे रहे थे। शानदार प्रोजेक्टर पर सपना दिखाया जा रहा था। थाली में सजावटी खाना परोसा जा रहा था और वो खाना सिर्फ दूर से दिखाया जा रहा था कि देखो अगर जिता दोगे तो यह थाली आपकी...। जनता अब मूर्ख नहीं रह गई है, उसको पहले सजावटी थाली चाहिए, फिर आपके बारे में सोचेगी।

खैर, जनता तो सोचती ही रहेगी, लेकिन उनका क्या...जो बेचारे बरसों से राज करते आ रहे हैं और उनको इस बार लड्डू खाना पड़ गया है। ऐसा लड्डू जिसका स्वाद करेले से भी कड़वा है। हम बात कर रहे हैं, गांधी फेमली की। ऐसा चीरहरण हुआ कि कुछ भी नहीं बचा। मोदी के केन्द्र में आने के बाद गांधी परिवार का डाउनफॉल शुरु हो गया और अभी चलता आ रहा है। कहीं से कोई उजाला नहीं दिख रहा है। अब इनके भगवान ही मालिक हैं।

उधर, गांधी के तीन बंदर की याद एक बार फिर से आ गई। अरे दिल्ली चुनाव में मोदी को भी तीन बंदर मिल गए हैं। ये वो बंदर हैं जिन्होंने सरेआम चीरहरण होने से मोदी को बचा लिया...। कुल मिलाकर इस चुनाव से मैसेज बहुत शानदार मिला है। नेता जी, अगर चीरहरण से बचना है तो अगली बार रिजल्ट लेकर ही जनता के बीच में जाना, वरना...केजरीवाल को याद रखना...।