Monday, November 28, 2011

'डीजे' लाओ तभी होगा बिटिया का 'ब्याह'

आजकल शादी-ब्याह में होने वाला तामझाम बड़े घरों तक ही सीमित नहीं रहा। जयमाल, बफर सिस्टम, ऑरक्रेस्टा, बैंडबाजा, रोड-लाइट, संगीत कार्यक्रम और डीजे की व्यवस्था अब किसी तरह दो वक्त की रोटी जुगाड़ने वाला भी करने लगा है। इतना ही नहीं शादी-ब्याह में मिलने वाला सामाना जैसे-गाड़ी, टीवी, घड़ी, गांव में बांटने के लिए ढेर सारी मिठाई, और अन्य ढेर सारे सामान की लिस्ट भी आम घरों में बनने लगी है।

तेल भराने का पैसा नहीं लेकिन दहेज में गाड़ी, सोने की मोटी जंजीर, खिलाने-पिलाने (शराब) की धांसू व्यवस्था अब हर घर की पहली च्वाइस बन गई है। कुल मिलाकर अब वो कहावत-जिसमें जितना चादर हो उतना ही पैर फैलाना चाहिए, ओल्ड इज बोल्ड हो गया है, अब तो चादर फट जाए लेकिन पैर बाहर निकलने दो परवाह नहीं। फलां की बेटी की शादी में दूल्हा घोड़े पर आया, डीजे भी था, जबरदस्त मजमा लगा। बस इसी कंपटीशन के पीछे आम लोग पड़ गए हैं। ऐसी प्रतियोगिता अभी तक सिर्फ नौकरी में देखी जा रही थी लेकिन अब शादी-ब्याह भी इससे अछूता नहीं रहा।

घर जाकर इस बार दहेज का बड़ा ही रोचक चेहरा देखने को मिला। गांव के बीच कुछ बनबासी (जिन्हें गांव में सबसे निम्न वर्ग का दर्जा प्राप्त है) रहते हैं, जो रोज गढ्ढा खोदो-रोज पानी पियो की तर्ज पर जीते हैं। न कोई बैंक अकाउंट, न पक्का मकान, सर्दी हो या गर्मी इनके बदन पर ठीक से कपड़ा तक नहीं होता। काम न होने पर ये लोग खेत-खेत जाकर चूहा मारते हैं और शाम को उसे पकाकर छप्पर के नीचे रात गुजारते हैं, सबसे बड़ी बात इनका छप्पर साल में कम से कम चार बार बनता-बिगड़ता है।

ग्राम प्रधान ने पक्का मकान बनाने के लिए कई प्रयास भी किए लेकिन ये लोग जगह को लेकर आपस में भी महाभारत खड़ा कर देते हैं। स्कूल में इनके बच्चों का नाम भी दर्ज है लेकिन बच्चों को लेने के लिए खुद गुरुजी को इनके घर अप-डाउन करना पड़ता है। गांव के अन्य बच्चे प्राइमरी स्कूल में पढ़ने जाते हैं लेकिन ये भाई लोग बच्चों को स्कूल इसलिए नहीं भेजते कि बड़ो के साथ रहकर इनके बच्चे बिगड़ जाएंगे। यह तो हो गया इनका रहन-सहन।

अब देखिए ये भाई लोग गांव में होने वाले शादी-ब्याह पर किस तरह से टकटकी लगाये रहते हैं। रामचरन की बेटी की शादी देख ये पगला ही गए। हुआ कुछ यूं कि रामचरन की बेटी की शादी धूमधाम से हुई। लड़का घोड़े पर आया, आतिशबाजी हुई, डीजे की धुन पर थिरकना और जयमाल सिस्टम भी था। सुबह विदाई में लड़के को गिफ्ट में मोबाइल, टीवी, फ्रिज, कूलर, दहेज में टू ह्विलर गाड़ी भी मिला।

अब यह शादी भाई लोगों के मन में बर्फ की तरह जम गई। इन्होंने ठान लिया कि अब हम भी अपनी बेटी की शादी ऐसे ही धूमधाम से करेंगे। बस क्या था पगलू बनबासी ने दूर के एक गांव में अपनी बेटी ऐश्वर्या की शादी तय कर दी। डिमांड दोनों तरफ से हो गया। लड़के वाले ने गाड़ी मांगी तो लड़की वाले ने कहा-रोड लाइट, रथ और डीजे के बिना शादी नहीं होगी।

पगलू ने शादी की खबर अपनी बस्ती में दे दी। जेब में फूटी कौड़ी नहीं लेकिन दहेज में गाड़ी, ऐश्वर्या को मोबाइल देने की बात तय कर ली थी। पगलू टेंशन में था, कुछ सूझ नहीं रहा था कि कैसे होगा। उसने पड़ोसियों को इकट्ठा करके कहा-देखो अगर ऐश्वर्या की शादी धूमधाम से नहीं हुई तो सबकी बदनामी होगी। कुछ भी हो हमें रामचरन को पीछे छोड़ना है। सबकी इज्जत दांव पर है। पगलू के फुंकार पर सबने रुपए इकट्ठा करने पर हामी भर दी। इनके यहां शादी के लिए शुभ-अशुभ की तारीख नहीं देखते। 17 नवंबर शादी का डेट फिक्स। हमारे घर पर भी आकर पगलू कुछ पैसा ले गया।

गाड़ी के लिए पगलू ने चंदा इकट्ठा कर लिया, अब बारी खरीदने की थी। गाड़ी के लिए पगलू ने गांव के कुछ प्रतिष्ठित लोगों से हाथ-विनती जोड़ा। लोगों ने गाड़ी खरीदवा दी लेकिन यह क्या, भाई साब के लिए यह जैसे किसी यज्ञ के समान था। घर पर गाड़ी आते ही पड़ोसियों का मुंह मीठा होने लगा।

लगा जैसे इस गाड़ी पर वह खुद चढ़ने वाला हो। 17 नवंबर का दिन आ गया। घर को सजाने के लिए लाइट का इंतजाम, हलवाई, साउंड, सब अपनी जगह जमने लगे। खाने में इनके यहां सुअर का गोश्त खासकर बनता है। हलवाई को खास हिदायत दी गई इसको बनाने के लिए। पगलू के यहां मजमा लग गया। पूरे गांव को निमंत्रण मिला था, जिसके तहत सब पहुंचे और जथा-शक्ति, तथा भक्ति मदद भी की।

रात के 8 बज गए। बारात का कोई अता-पता नहीं। पूरा बनबासी खानदान टकटकी लगाए दूल्हे राजा का इंतजार कर रहा था। इसी बीच पगलू के साले साब रामखेलावन ने दो घूंट लगा लिया। इतना ही नहीं अपने जीजा जी को भी मदिरापान करा दिया। बस अब क्या था-जैसे-2 देर हो रही थी पगलू के मुंह से गालियों का दौर शुरु हो गया। आखिरकार लगभग 12 बजे बारात आ गई। आधे लोग तो सो गए थे, ऐश्वर्या की आंख पर भी पानी का छींटा मारकर जगाया गया।

सभी लोग आंख मीजते हुए उठे लेकिन यह क्या पगलू बौखला गया था। शादी नहीं होगी, बारात वापस ले जाओ, इन सालों ने किया हुआ वादा तोड़ दिया है, कोई कुछ भी कर ले अब दूसरी जगह ही शादी होगी। लोगों ने पूछना शुरु किया अरे हुआ क्या, जो इतना गरज रहे हो। बारात तो आ गई है, रोड लाइट भी है, बैंड बाजा भी ठीक-ठाक है, शादी में पांच ट्रेक्टर भी है। किसी ने कहा-अरे बारात देर से आई इसलिए पगलू भैया नाराज हो क्या। इतना कहना था कि पगलू जी का पासा सातवें आसमान पर पहुंच गया। अबे धत्...ये सब बात नहीं है।

शादी तय करते समय ही-यह सौदा हो गया था कि बारात लेकर आना लेकिन साथ में डीजे होना ही चाहिए। अब रामचरन के यहां डीजे आया था, मेरी इज्जत तो गई ना...। समाज में क्या मुंह दिखाऊंगा। पूरे गांव में हल्ला किया था बेटी की शादी में डीजे आएगा लेकिन अरमानों पर पानी फिर गया। अब कुछ नहीं हो सकता-बारात वापस ले जाओ। बिना डीजे शादी नहीं होगी। उधर ऐश्वर्या का रोना-धोना भी शुरु हो गया था। वो भी डीजे को लेकर दहाड़े मार रही थी। बाप-बेटी के हंगामे ने पूरे गांव को आधी नींद (गांव में 9 बजे तक सब सो जाते हैं) से जगा दिया, हो हल्ला को देख-सुन लोग बनबासी द्वार पहुंच गए।

मनाने का सिलसिला शुरु हो गया लेकिन पगलू ने तो दो घूंट चढ़ा ली थी इसलिए उस समय वही कंडीशन हो गई थी, जैसे-भैंस के आगे बीन बजाओ, भैंस खड़ी पगुराय। वह किसी की बात नहीं सुन रहा था, बस डीजे को लेकर खूंटा गाड़ दिया। बाराती पक्ष पगलू की हरकतों से तंग आकर प्रधानजी की शरण में जा पहुंचा। काफी मिन्नते करने के बाद प्रधान ने फोन करके डीजे का इंतजाम करवा दिया। इतना होना था कि पगलू उछलने लगा, वो रामचरन को बुलाने लगा। देखो मेरी बेटी की शादी में डीजे आ रहा है, किसी औकात है हमारे सामने। लगभग 2 बजे सुबह डीजे की धुन पर जमीन हिलने लगी। सबको साइड में करके पगलू खुद उछल-कूद करने लगा।



ये भाई साब शराब में एकदम मस्त हो गए थे। किसी कोने से दो लोग आए और हांथ पकड़कर घर ले गए। काफी हंगामे के बीच ऐश्वर्या शादी के बंधन में बंध गई लेकिन पूरे गांव के लिए सिरदर्द बन चुकी यह शादी आखिरकार हो ही गई, सबने सबने राहत की सांस ली।

सुबह पगलू का नशा उतर गया, उसने रोते-गाते ऐश्वर्या को विदा भी कर दिया। लेकिन इतना तामझाम करने के बाद अब वह पूरी तरह कर्जे में डूब चुका था। सबने समझाया था कि पगलू काहे के लिए इतना खर्चा कर रहे हो लेकिन उसे तो रामचरन को पीछे छोड़ने का भूत सवार था। अब कम से कम 15 साल दूसरों के यहां काम करने के बाद ही पगलू कर्ज के बोझ से निकल पाएगा। लेकिन जहन में एक ही सवाल है कि दहेज और शादी का तामझाम किस तरह समाज में पैर पसार रहा है।

Thursday, November 24, 2011

'स्पेशल' के नाम पर आपके साथ भी हो सकता है 'अजीब'

इस इस बार गांव की मेरी यात्रा काफी अजीबोगरीब और कई मायनों में दिलचस्प भी रही। तारीख 11 नवंबर-सुबह 8.30 बजे ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में रातभर फटाफट काम निपटाया। सुबह जल्दी-जल्दी रूम पर पहुंच-नहाया और हबीबगंज स्टेशन जा धमका। सबसे पहले मैंने स्टेशन पर लगे स्टेटश बोर्ड पर ताका-झांकी की, यहां से ही मेरे साथ कुछ अजीब होने की शुरुआत हो चुकी थी। बोर्ड पर आंखे फेरने के बाद भी ट्रेन का कोई अता-पता नहीं दिखा। जबकि अन्य ट्रेनों का पूरा लेखा-जोखा बोर्ड पर आ रहा था।

दिमाग चकरा गया-दो-तीन बार टिकट देखा कि कहीं गलत डेट पर तो नहीं आ गया, लेकिन सब सही था। दिल की धकड़कन तेज हो गई थी, पता नहीं ट्रेन को क्या हो गया, कहीं यह फर्जी टिकट तो नहीं ले लिया, या यह ट्रेन रद्द तो नहीं हो गई। तमात तरह की बाते मन में उफान मार रही थी लेकिन तब तक दिमाग में आ गया कि इंक्वायरी खिड़की तो अभी बाकी ही है।

यहीं से नैया पार लगने की आस लिए, धक्का-मुक्की कर खिड़की पर हाथ रख ही दिया। अंदर साब बड़ी तल्लीनता के साथ लोगों की परेशानियां दूर कर रहे थे, मैंने भी अपना दुख-दर्द बयां कर दिया। लेकिन एलटीटी स्पेशल ट्रेन की दशा और दिशा पूछा ही था कि सामने से गरम हवा आने लगी, साब तो आंखे तरेर रहे थे, जैसे मैंने कोई बड़ा अपराध कर दिया हो।

बड़े साब कुछ देर तक तो मुझे ऊपर से नीचे तक आंखे फाड़कर देखते रहे। मुझे लगा शायद कुछ ऊंटपटांग बक दिया, साथ में खड़े दोस्त से कंफर्म किया लेकिन मैं सही निकला। ऐसा लगा जैसे साबजी इस ट्रेन का नाम पहली बार सुन रहे थे। मुंह मटकाना...कंप्यूटर में तांक झांक करना..मुझसे टिकट मांगना...बार-बार फोन घुमाकर किसी से घचर-पचर करना...सबकुछ अजीब था। खुद तो पसीने से भींग रहे थे, ठंड़ी में मुझे भी कुछ इसी तरह का एहसास दिलवा रहे थे।

सरजी बैठे तो थे इंक्वायरी कांउटर पर लेकिन वे सप्ताह में एक दिन चलने वाली इस स्पेशल ट्रेन से बिल्कुल अज्ञान थे। तभी तो बेचारे इतना पानी-पानी हो रहे थे। लेकिन आधे घंटे की उठा-पटक के बाद इनकी मेहनत ने अपना रंग दिखा दिया, और उन्हें ट्रेन के बारे में सारी जानकारी मिल गई। फिर क्या था बड़ी उत्सुकता के उन्होंने मेरे मुंह पर मेरा टिकट दे मारा और पूरी ट्रेन की यथास्थिति बयां कर दी। ट्रेन पूरे डेढ़ घंटे लेट थी। लेकिन इंतजार की अवधि बढ़ती ही गई...लगभग तीन घंटे का इंतजार। रातभर जगने से लग रही झपकी को खत्म करने के लिए कॉफी और चाय की चुस्की लेता रहा।

एस-2 में सीट नंबर 51। किसी ने बताया एकदम आगे की तरफ यह डिब्बा लगता है। सामान लेकर अड्डे पर जम, टकटकी लगा दी। और कुछ ही पल में वह दिख गई..दिख गई..अरे आ गई...आ गई...मोगैंबो खुश हो गया। लेकिन यह क्या, यहां भी अजीब। ट्रेन प्लेटफॉर्म पर गतिमान ही थी कि बड़ा झटका लग गया, पूरी बोगी ही उल्टी लग गई थी, आगे का पीछे और पीछे का आगे। अब तो बोल्ट की तरह दौड़ लगानी पड़ गई...हांफते-हांफते हालत खराब..इतना तेज कभी नहीं दौड़ा था। लेकिन समय रहते मंजिल मिल गई। ऊपर की सीट थी, सामान रखा और बिना कुछ सोचे-समझे चैन की नींद लेने के लिए पैर फैला दिया।

कुंभकर्णी नींद ऐसी लगी कि पता ही नहीं चला शाम के 6 कब बज गए। आंख मींजते हुए उठा, अगल-बगल वालों से गाड़ी की स्थिति के बारे में पूछा तो वो भी घूरने लगे। लेकिन थोड़ा रुकने के बाद गुर्राकर नीचे बैठे एक जनाब ने दयादृष्टि दिखाई और कहा-जनाब यह स्पेशल ट्रेन पूरे पांच घंटे लेट चल रही है। यहां भी अजीब तब लगा जब लोग बताने लगे कि हर मालगाड़ी के क्रॉस होने के बाद ही हमारी गाड़ी को हरी झंड़ी मिल रही है। सभी गाली दे रहे थे, साला नाम है स्पेशल लेकिन है पैसेंजर से भी बदतर। पैदल चल दूंगा लेकिन अब कभी स्पेशल के चक्कर में नहीं पड़ूंगा।

मैं भी थोड़ा परेशान हुआ लेकिन फिर यह सोचा कि रात में पहुंचकर वैसे भी क्या करूंगा। यात्रा का मजा लो। लेकिन मेरे मजे का आइडिया अब डर में बदल रहा था। कानपुर के पहले एक स्टेशन पड़ता है उरई। यहां पर मटकी में रसगुल्ला बड़ा फेमस है। पांच रुपया पर पीस। भूख लगी थी, पूरा मटका ही खरीद लिया। इसमें 15 पीस थे। सबके सब चट कर गया। हालांकि एक साथ यह नहीं खाया लेकिन धीरे-धीरे करके सब निपटा दिया, क्योंकि भूख का भंवर काफी गहरा हो गया था।

6.30 बजे गाड़ी उरई में खड़ी थी, वहां से कानपुर पहुंचने में लगभग 3 घंटे लगने वाला था, जैसा कि बताया जा रहा था। लेकिन जब एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच कोई गाड़ी दस बार स्टे करेगी तो खाक समय से कोई पहुंचेगा। लगभग 12 बजे गाड़ी कानपुर पहुंची। यहां पहुंचते ही मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। क्योंकि यहां भी कुछ अजीब हो गया। पूरी बोगी ही खाली हो गई। सन्नाटा छा गया, बचे सिर्फ 5 लोग। गुदगुदाती ठंड़ में नींद भी आ रही थी, डर भी लग रहा था कि पता नहीं, कब क्या होगा।

भोपाल से चलते टाइम किसी ने यह भी बता दिया था कि कानपुर से इलाहाबाद के बीच थोड़ा सतर्क रहना। लेकिन यह बात यूं ही में टाल दी थी कि कोई बात नहीं 10 बजे तक तो घर पहुंच जाऊंगा। डर वाली कोई बात नहीं लेकिन यह क्या सब उल्टा हो गया। पांच लोग वो भी अनजान, उनके पास जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। पहले नीचे की सीट पर बैठा था लेकिन मौके की नजाकत को देख ऊपर की सीट पर जा बैठा। सामान ऊपर की सीट से नीचे रख लिया था लेकिन फिर से शिफ्टिंग कर ली।

गेट के साथ अगल-बगल की खिड़कियों को भी बंद कर दिया था। कानपुर से थोड़ी दूर जाने पर भी अजीब दास्तां गुजरी। यहां गाड़ी रुकी, दूसरे गेट से दो साधु महाराज अंदर पधारे। लेकिन इनके पहनावे ने हालत फिर से खस्ता कर दी। रात के एक बजे...जबरदस्त ठंड़ लेकिन इनका बदन पूरी तरह से खाली।

हाथ में बड़ा सा त्रिशूल, दूसरी हाथ में एक सामान से भरी बोरी। लंबे बाल और दाढ़ी। चेहरा एकदम खूंखार। अब क्या करूं। देखते ही चेहरे पर चद्दर डाल ली और चद्दर का एक कोना उठाकर धीरे-2 उनकी गतिविधियों पर नजर डालता रहा। कुछ देर बाद ये लोग भी सो गए। थोड़ी राहत मिली।

सुबह के 3.30 बजे ट्रेन जैसे-तैसे इलाहाबाद पहुंची तो जाकर जान में जान आई। लेकिन अब भी जहन में एक सवाल कौंध रहा था कि स्पेशल के नाम पर लोगों के साथ यह कैसा मजाक किया जा रहा है। जिस ट्रेन को रात 9.30 बजे पहुंचनी थी, वह सुबह 3.30 बजे पहुंच रही है। जितने लोग ट्रेन में थे सब कहीं न कहीं से परेशान दिख रहे थे, तौबा कर रहे थे। जो लोग स्टेशन पर अपने सगे-संबंधियों को लेने आये तो उनपर भी डांट पड़ रही थी। अरे टिकट बुक कराने को लेकर।

साथ में लोग अपने बच्चों, एजेंटो को कोस रहे थे कि पता नहीं क्या देखकर इस ट्रेन में टिकट करवा दिया। लेकिन मैं किसी को नहीं कोस सकता था क्योंकि इस ट्रेन में मैंने खुद ही टिकट करवाया था। फिर भी तकलीफ हुई कि क्या यही है हमारी इंडियन ट्रेन। ऐसे ही हम पड़ोसियों से आगे निकलेंगे। हालांकि मैंने भी कान पकड़ लिया था कि अब कभी भी इस तरह का स्पेशल नहीं बनूंगा।

Wednesday, August 3, 2011

बेचके सहनशीलता कमाएंगे विदेशी मुद्रा

भारतवासी धैर्य रखते हैं।

विकट सहनशील होते हैं।



इतने सहनशील होते हैं कि बम पटक दो, मारकाट मचा दो चूं तक न करेंगे। हालांकि कई बार जनता उकता जाती है तो उत्पात पर उतर आती है। लेकिन हमारी सरकार तो ससुरी इतनी भयंकर सहनशीलता रखती है कि अगर इसका ही निर्यात करने लगें तो सारी विदेशी मुद्रा की जरूरत ही खत्म हो जाए। हर देश को सप्लाई करेंगे सहनशीलता। यह आईडिया एकदम सॉलिड है।


दुनिया में सहनशीलता के निर्यात में हमारा ही एकाधिकार होगा। वैसे हम प्राचीनकाल से ही इसे विश्व को सप्लाई करते आ रहे हैं बस पहले रोकड़ा कमाने की नहीं सोचते थे। अब भई व्यापार का जमाना है। धंधा अगर ट्रैक पर आ गया न तो समझो निकल पड़ी...।


संयम-धैर्य...हम कड़ा जवाब देंगे...हमें कमजोर न समझें...समय आने दो बता देंगे...आदि मदों में पूरा सहनशीलता का पैकेज तैयार है। गोदाम में यह इतना भर गया है कि कहीं सड़ने की नौबत न आन पड़े। भिजवा दो दुनिया के किसी भी देश में। जहाजों से..., हवाई जहाजों से। बोरों में लदवाकर, गधों पर भी रवाना किया जा सकता है। अरे भई कई देशों में जहाज या हवाई जहाज का जुगाड़ जो नहीं है। कैसा चोखा धंधा है, कितनी जोरदार है व्यापारी बुद्धि। वैसे यह धंधा सिर्फ हमारे ही बूते की बात है, सबके बस की नहीं...।


हालांकि आप कह सकते हो कि इसे खरीदेगा कौन सा देश? हमें छोड़कर दुनिया में कोई बचा ही नहीं सहनशील? वैसे कोई तो देश होगा ही...। इतनी बड़ी दुनिया है..किसी को तो पकड़ ही लेंगे। गुरू, व्यापारी वही जो अंधे तक को आईना बेच दे...। तो संभावना विकट है। विदेशी मुद्गा भारी है। आंखें खुल गईं न लालच से...। लालची कहीं के...।आप कहते हो क्या होता है सहनशीलता से...अरे करोड़ों की विदेशी मुद्रा कमाई जा सकती है। बस वो तो हम कमा नहीं रहे हैं। ये भी हमारी सहनशीलता ही है।


ही में सरकार ने सहनशीलता अच्छा खासा नया स्टॉक भी जमा किया है।मुंबई ब्लास्ट के बाद दिखाई गई सहनशीलता के माध्यम से।


इससे बड़ा एक्जांपल और क्या हो होगा। आर्थिक राजधानी दहल गई, लाशों का ढेर लग गया, खून से सनी सड़कें लेकिन हम आरोपी तक नहीं खोज पाए। धीरे से इस घमाके को भी भूल जाएंगे..पहले भी एक बार भूल चुके हैं। इससे ज्यादा सहनशीलता और क्या होगी।


तो हो सकता है कि अब आपके मन एक प्रश्न कुलांचे भरने लगे...यह सहनशीलता आती कहां से? तो भई इसका जवाब बड़ा ही सिंपल है। हमारे देश में तो नेता पैदा ही सहनशीलता के साथ होते हैं। केवल घपले-घोटाले में अगर कोई अड़ंगा लगे तो वहीं उनका खून खौलता है, वरना तो हम जन्मजात सहनशील हैं ही। आपको तो पता ही है। फिर हमारे देश की सरकार इन्हीं सहनशील नेताओं से मिलकर बनती है।


देश ही क्या हम तो आसपड़ोस के देशों में भी सहनशीलता भरने के चक्कर में रहते हैं लेकिन क्या करें ससुरे लेते नहीं हैं, तो क्या करें हम तो देने के लिए तैयार बैठे हैं। पिद्दी से हैं हमई को आंखें दिखाते हैं।


लेकिन मजाल है कि हम गुस्साएं, खुदई का मुंह दूसरी तरफ कर लेते हैं। तो दूसरी तरफ वाला आंखें दिखाने लगता है। हम उसे भी सहनशीलता सीखने लगते हैं। वो भी हरकतों से बाज नहीं आता। हम घिरे हैं लेकिन जनम के सहनशील ठहरे...दोनों को माफ करके भूल जाते हैं। वे फिर भी हमारे देश में घुसकर घमाके करते हैं, गोलियां बरसाते हैं, हमें ललकारते हैं...हम भूल जाते हैं, सहनशील जो ठहरे।आपको तो पता ही है।

Thursday, July 14, 2011

तुम हमें जख्म पर जख्म देते रहो, हम तो फूल बरसाते रहेंगे!!!

तुम हमें जख्म पर जख्म देते रहो, हम तो फूल बरसाते रहेंगे। तुम हमारे लिए लाख गढ्ढे खोदो, हम उसे पाटते जाएंगे। हमारी आर्थिक राजधानी के दिल पर फिर गहरे घाव हुए, लेकिन हम अपनी परंपरा पर अब भी कायम हैं। कसमें-वादे हम तोड़ नहीं सकते, चाहे कुछ भी हो जाए। क्योंकि हमने संघर्षों में जीना सीखा है। जब हम फिरंगियों की जलालत और दहशत झेल सकते हैं, तो ऐसे हमले और घाव तो आम बात है।

हमारे पुरखों ने हमें धैर्य करना सिखाया है। इसे हम मरते दम तक नहीं छोड़ सकते। कोई हमें कुछ भी कहे, हम ईंट का जवाब पत्थर से नहीं दे सकते। अगर हम ऐसा करेंगे तो यह हमारी आन-बान और मान का अपमान हो जाएगा। हमें सुभाष चन्द्र, भगतसिंह के बताए रास्ते पर नहीं बल्कि अहिंसा के मार्ग पर आंख बंद करके चलते जाना है...बस चलते जाना है। फिर आगे चाहे कांटे मिले, गड्ढे मिलें या फिर कुंआ। हमारे अंदर जोश-जज्बा और जुनून जो है। साथ ही सब्र, धैर्य का बांध भी हम लेकर ही चलते हैं, जो किसी के चाहने पर भी नहीं टूटने वाला।

सब्र हमारे अंदर कूट-कूट कर कैसे भरा है, यह तो किसी ने जाना ही नहीं। देश के किसी भी कोने में ब्लास्ट हुआ हो, सबसे पहले हमारे नेता पहुंचते हैं, पक्ष-विपक्ष सब मदद के लिए आगे आ जाते हैं। भाईचारा दिखाते हुए वोट बैंक की राजनीति भी चमकाना नहीं भूलते। गृहमंत्री हो..प्रधानंमत्री हों या फिर कोई बड़ा नेता। पहले तो घटना की निंदा होती है। फिर घटना स्थल पर पहुंचकर मुआयना..फिर घायलों से मिलना..फिर समय रहेगा तो मृतक के परिवार से भी मिलना। इनके मिलने-मिलाने के चक्कर में कई बार तो गरीब की जान भी चली जाती है।

हर जगह एक बात को कई बार सुना जा सकता है...देशवासियों से अपील है कि वो ऐसे समय में अपना धैर्य न खोएं। संयम बनाए रखें। हमने अलर्ट जारी कर दिया है, जांच टीमें लग गई हैं, फला..फला संगठन ने घटना की जिम्मेदारी ले ली है, स्कैच जारी हो गया है, जल्द पकड़े जाएंगे गुनहगार, पकड़ में आने के बाद लाखों-करोड़ो रु. खर्च हो जाएंगे सिर्फ उनकी मेहमाननवाजी पर, ज्यादा कुछ हुआ तो हम मुंह तोड़ जवाब देंगे, बस बात यहीं पर खत्म। आया राम गया राम वाली बात हो गई। फिर होगा तो देख लेंगे। तमाम तरह के वादे भी हो जाएंगे...ये करेंगे..वो करेंगे..ये बनाएंगे..वो बनाएंगे..अब ऐसा नहीं होने देंगे..वैसा नहीं होने देंगे। न जाने कितने प्रकार के कस्मे वादे खाकर डकार भी नहीं लेते...। इतना फेंका-फांकी करने के बाद फिर कोई आया और जख्म को हरा करके चल दिया..फिर वही पुरानी और रटा-रटाया बयान और कस्मे वादे..।

गांधीजी ने कहा भी था, कोई अगर एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा आगे कर देना। हम उनके बताए हुए रास्ते पर चल भी रहे हैं, एक-दो गाल तो दूर, हम तो शरीर के हर हिस्से पर जख्म खाने के लिए तत्पर हैं। आज मुंबई में हमारे ऊपर फिर मार पड़ी लेकिन हमारे सब्र का बांध नहीं टूटा, यही है हमारी पहचान। हर तरफ चीख-पुकार, शरीर के चीथड़े उड़ गए, लाशों की ढेर लग गई, बुरी तरह आहत हुए। पर देखो दुनिया वालों, हमारा धैर्य अब भी कायम है। क्या तुम्हारे अंदर है सब्र और धैर्य। नहीं। यह खिताब हम किसी और को हासिल नहीं करने देंगे। अमेरिका महाशक्ति होगा लेकिन सब्र हमारे जैसा और किसी में कहां।

आजादी के पहले और अब लगातार हम पर न जाने कितने तरह के हमले हुए। खून बहे। लेकिन हमने सब्र का दामन नहीं छोड़ा। कहीं भी धमाका हो, कितने भी आदमी मरे, लहूलुहान हो, घर का घर खत्म हो जाए, मांगे सूनी हो जाएं, वंश खत्म हो जाए, लेकिन हमें सब्र का पाठ पहले पढ़ाया जाता है। अरे यह तो भूल ही गया कि सब्र के लाखों रुपये भी मिलते हैं। नौकरियां भी देने का दिलासा मिलता है (मिले भले न, क्योंकि जेब भरने के लिए पैसा जो नहीं दे पाते)।

वाह रे सब्र..। धरती पर जब रावण ने हाहाकार मचाया था, तो श्रीराम ने अवतार लिया। कंस का अत्याचार बढ़ा तो कृष्ण धरती पर उतरे। इसी तरह से भगवान शिव, पार्वती, मां काली, मां दुर्गा ने जब-जब धरती पर किसी न किसी रूप में अवतार लिया। लेकिन इस कलयुग में क्या आतंक के खिलाफ, अत्याचार को खत्म करने के लिए कोई अवतार होगा। क्या हम इसी तरह से सब्र का घूंट पीते रहेंगे। क्या वो समय कभी नहीं आएगा जब हम सब्र का बांध तोड़कर आतंकवाद, करप्शन, अत्याचार के खिलाफ खड़े होंगे। क्या टूटेगा वह बांध, जो अभी तक हमने बनाकर रखा है...

Tuesday, July 5, 2011

चाय-पकौड़ों के बीच बारिश की वो गुदगुदाती यादें

गर्मी हो-सर्दी हो या फिर बारिश, सब अपने-2 समय में अपनी दबंगई दिखाने में जरा भी पीछे नहीं रहते। बिना एक दूसरे के सब अधूरे हैं। पकृति ने एक ऐसा सिस्टम बना दिया है कि सब अपने समय पर और बिन बुलाए मेहमान की तरह आ ही धमकते हैं। सर्दी के बाद गर्मी और उसके बाद बारिश सब का अपना एक अलग ही मजा है, जैसे बाजार में तरह-तरह की मिठाईयों का स्वाद होता है उसी तरह बदलते मौसम का मिजाज किसी मिठाई से कम नहीं होता है। और इसका स्वाद लिए बिना कोई नहीं रह सकता।


इस समय देश में बारिश का मौसम चल रहा है। मुझे तो भई बारिश उतनी अच्छी नहीं लगती लेकिन विरोध भी तो नहीं कर सकते। भोपाल में भी बारिश की पहली किस्त का हिसाब-किताब शुरु हो गया है। कभी रिमझिम तो कभी तेजी के साथ आसमान से पानी की बूंदों के गिरने के नजारे को कैद करने के लिए लोग न सिर्फ घरों से निकले बल्कि सबने भींगना भी पसंद किया।

करें भी क्यों नहीं पहली बारिश जो है, हर पहले सामान का अपना एक अलग ही मजा होता है। इतनी लबलबाती गर्मी के बाद राहत की बूंदों से भला कौन भागेगा। अब दुकानों की कड़ाहियों में तेल हरवक्त गर्म होता रहता है और हर आदमी में ऐसे समय पकौड़ों की चाह बढ़ जाती है। बदन में हल्की सी सिहरन और उसे दूर करने के लिए गर्मागर्म चाय और साथ में भंजिया मिल जाए तो वाह...वाह..क्या कहने। और ऐसे में बारिस-चाय-भंजिया के साथ पुरानी यादों को जहन में उतार लो तो वह सोने पर सुहागा हो जाता है।


भई आपके साथ कोई यादें जुड़ी हो या न जुड़ी हो लेकिन मैं तो उस बारिश को कभी नहीं भूल पाऊंगा। मैं बात कर रहा हूं मुंबई के बारिश की। बारिश में भीगते हुए 35 किलोमीटर दूर से आना, ऑफिस में आकर कपड़े बदलना, गर्मागर्म भंजिया मंगाकर खाना, दोस्तों संग ठहाके लगाकर चाय की चुस्कियां लेना आ..आहा..क्या मजा आता था, वाह गुरु...वो भी क्या बिंदास लाइफ थी। ऑफिस में आने वाला हर शख्स भीग जाता था लेकिन सभी मस्ती में डूबे रहते थे।

कैसी भी बारिश हो लोग ऑफिस आना नहीं छोड़ते थे। हमारी मैडम भी उन्हीं वीरों में से एक थी। वो जितनी वीर थी उतनी ही धाकड़, जिनसे पूरा ऑफिस अंदर ही अंदर डरता था। भीषण बारिश में ऑफिस आने के लिए तो मैडम के ऊपर जैसे भूत सवार हो जाता था। चाहे कितनी ही भीषण पानी की धार गिर रही हो वो ऑफिस पहुंच ही जाती थीं। एक बार तो उनके साथ बड़ा मजेदार वाकया हुआ। भयंकर बारिश, हर तरफ पानी ही पानी, छोटी गाड़ियां भी पानी में डूब गईं, बसों के पहिए थम गए, ट्रेंनों की आवाजाही चींटियों की तरह हो गई।

हमारी मैडम ऑफिस से करीब 5 किलोमीटर दूर ही रहती थीं, वैसे तो वो अक्सर अपनी मारूती एट-हंड्रेड से आती थी लेकिन उस दिन मैडम का पैर-कभी आगे कभी पीछे आ जा रहा था। ऑफिस में फोन करके हम सब का हालचाल वे हर मिनट ले रहीं थीं। लेकिन उनका दिल नहीं मान रहा था और वे घर के बाहर एक छतरी लेकर निकल पड़ीं।

बाहर आकर वे ऑटो रिक्शे का इंतजार करने लगीं लेकिन काफी देर बाद पता चला कि जो जहां है वहीं जम गया है, सबके पहिए बंद पड़े हैं। लेकिन हमारी मैडम भी कहां पीछे रहने वाली थी, उनका आत्मविश्वास जाग उठा और उन्होंने अपने कदम आगे बढ़ा दिया। कुछ दूर जाने पर एक ब्रिज पड़ता था, जिसके नीचे उस दिन मानो समुंद्र की धार फूट गई हो, उधर से हर कोई आना जाना बंद कर दिया था, क्योंकि पानी का बहाव बहुत ज्यादा था।

अब मैडम को कौन समझाए कि जब सब नहीं जा रहे तो आप भी अपना कदम पीछे खींच लेती, ऑफिस जाकर कौन सा तीर चला लेती। वे पानी की तेज धार में अपने कदम को रख दिया, उन्हें लगा कि उनका पैर हनुमान जी का पत्थर है, जो पानी में रखते ही रुक जाएगा लेकिन ऐसा उनका सोचना उस समय पानी-पानी हो गया जब वे थोड़ी दूर बिना हाथ-पैर मारे डूबती-चिल्लाती हुई पहुंच गई। उस समय किसी राहगीर ने उनका हाथ थामा, अरे भई हाथ थामने का गलत अर्थ न निकालना, उसने हाथ थामकर सिर्फ उन्हें पानी से बाहर निकाला और कुछ नहीं।

अब उनकी सांस ऊपर-नीचे और दिलों की धड़कने तेज हो गई थी, एक तो सबसे बड़ी बात हमारी मैडम शरीर से थोड़ी कमजोर थी। तभी तो वो पानी पर भारी न पड़ सकीं। भला हो उन भाई साब का जिसने हमारी मैडम की डूबती नैया को सहारा दिया लेकिन बाहर आने के बाद मैडम कंगाल हो चुकी थीं। कहने का मतलब, उनके छाते का ढांचा पूरी तरह से बिगड़ गया था और उनके एक पैर का चप्पल भी किसी और के पैर की शोभा बढ़ाने निकल लिया था।

इतनी आफत के बाद भी मैडम झांसी की रानी की तरह आगे बढ़ती गईं। एक हाथ में एक चप्पल, दूसरे हाथ में टूटा हुआ छाता, आखिर इतने संघर्ष की कोई तो निशानी चाहिए थी न। लोगों के पूछने पर आखिर किस मुंह से वे अपने संघर्ष की कहानी बयां करती। गिरते-पड़ते दोपहर के करीब दो बजे मैडम ऑफिस पहुंच ही गईं। वे पूरी तरह से थर-थर कांप रही थी, अंदर प्रवेश करते ही उन्होंने टूटा छाता मुझे पकड़ाया, बचा हुआ एक चप्पल चपरासी बेचारे को दे दिया, अब भला बताईए उस एक चप्पल का वह क्या करता, कोई प्रदर्शनी में लगाना था उसे जो थमा दिया। अब इस समय मैम कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी। उनकी हालत देख ऑफिस के लोग आसपास मधुमक्खियों की तरह घेरा बना लिए।

सबने यही कहा कि आपको क्या जरूरत थी यहां आने की। आप तो घर बैठे भी लैपटॉप पर काम कर सकती थीं। लेकिन मैडम को तो मिशाल कायम करनी थी। खैर उनका कांपना रुक नहीं रहा था, आनन-फानन में कैंटीन वाले ने गर्मा-गर्म चाय लाया, तीन-चार कप चाय चढ़ाने के बाद मैडम की जान में जान आई। मैडम को सही सलामत देख और मौका ताड़कर हमने भी गर्मागर्म पकौड़ी और चाय का ऑर्डर दे मारा क्योंकि पैसा मैडम के खाते में लिखवाना था।

अरे भई हम भी तो इंसान है, हमें भी ठंड़ी लग रही थी। इसके बाद गप्पसड़ाका करते हुए, खाते-पीते मौज मस्ती करते हुए सब अपने-अपने काम में लग गए। (बारिश के इस संघर्ष की कहानी जैसा मैडम ने ऑफिस आकर बताया था)।

खैर यह तो आज भी हम लोग करते हैं, भोपाल की बारिश को चाय और यादव के पकौड़े के साथ इंज्वाय करते हैं। लेकिन इतना जरूर है भारी बारिश में तर-बतर होकर मैडम की तरह ऑफिस आने का जोश अब यहां नहीं दिखता। अरे दिखेगा भी कैसे यहां की रोड़े जो पूरी तरह से सिमेंटेड हैं। हालांकि भोपाल के बाहर का नजारा हिला हुआ है जो बारिश में अपने नये स्वरूप को छोड़ पूर्वजन्म में चली जाती है।

गिरगिट की तरह रंग बदल रहा दहेज ‘’दानव’’

भई इसे घोर कलयुग नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे। पहले दहेज रूपी दानव ससुराल वालों की तरफ पहुंचकर अपना रंग दिखाता था लेकिन अब जिस कंधे पर बंदूक रखकर दहेज की मांग की जाती थी, आज वही बहू खुद आगे बढ़कर अपने पिता-भाई और मायके वालों से दहेज मांगने के लिए पति और सास-ससुर पर जोर दबरदस्ती कर रही है। ऐसा न करने पर अंजाम भी दिखा रही है। ऐसे ही एक खबर ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया कि अब दहेज रूपी दानव ने किस ढंग से गिरगिट की तरह रंग बदल लिया है। खबर थी...पति ने दहेज में कार नहीं मांगी तो पत्नी ने जहर खाने की कोशिश की...।

मैं तो पूरी तरह से हिल गया, मुझे लगा खबर की हेडिंग गलत है लेकिन अंदर झांककर देखा तो बहुत गहराई थी। यहां एक पत्नी अपने पति को इस बात के लिए कोस रही थी क्योंकि उसने दहेज में कार की मांग नहीं की थी। कल तक जहां बाप के घर से विदा होने के बाद बेटियां कसम खा लेती थी कि कुछ भी हो जाए बाप का सिर नीचा नहीं होने देंगे। ससुराल में दहेज के लिए प्रताड़ित होने पर भी बेटी अपने मां-बाप के सामने हाथ फैलाने से डरती थीं आज वही बहू-बेटियां समाज में हो रहे बदलाव के रंग में इतनी ज्याद रंग गई हैं कि सारे रिश्ते-नाते की मां की आंख हो गई है।

यहां पर वो गाना जिसमें एक बाप अपनी बेटी को घर से विदा करते समय रो-रोकर कहता है...बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले...वह सब भौतिकतावाद के हवनकुंड में झोंक दिए गए हैं।
शादी के बाद जो दहेज ससुराल वालों की तरफ से बहू को मोहरा बनाकर मांगा जाता था आज वही बहू सबको साइड में करके मां-बाप की खुशियों पर खुद लात रख रही है।

इसका कारण आज सिर्फ एक ही है समाज में भौतिकतावाद का बढ़ता दायरा। चीन में ट्रेन की रफ्तार सबसे तेज है लेकिन हमारे यहां भौतिक रूपी गाड़ी की स्पीड उस ट्रेन से भी ज्यादा तेज है जो हर घर से होकर गुजर रही है।

आज कुछेक को छोड़कर हर घर में दहेज की दबंगई चलती है। दहेज न लेने वालों को समाज में बहुत ही गिरी निगाह से देखा जाता है। अच्छा दहेज मिला है तो समाज में बहुत इज्जतदार हो अगर कम दहेज लिया तो वह आपको नीचा दिखाने के लिए काफी है। बाप अपनी बेटी के लिए वर की तलाश में जाने से पहले अपनी जेब टटोल लेता है कि हमारा बजट क्या है। इतने में सौदा होगा या नहीं, कम ज्याद भी होना पड़ता है। मंड़ी में जिस तरह से हर सामान की बोली लगती है उसी तरह समाज में दूल्हों की बोली लगती है।

लेकिन सोचने की बात है यह सौदा लड़के का परिवार करता है। दहेज का एमाउंट क्या होगा, कौन सी टीवी लेनी है, किस कंपनी का फ्रिज रहेगा, कूलर, डाइंग टेबल, प्रेस, बाइक या कार कौन से मॉडल की होगी..वगैरह-वगैरह। यह सब लड़के का परिवार ही डिसाइड कर लेता है और लड़की का बाप बेचारा चुपचाप उनकी सारी मांगे सिर झुकाकर मान लेता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि बिना दहेज के योग्य लड़का नहीं मिल सकता। लड़की ससुराल जाती है लेकिन दहेज रूपी दानव सबकुछ लेने के बावजूद भी मुंह बनाना नहीं छोड़ता।

सास-ससुर-ननद-देवर-जेठ यहां तक की पति भी दहेज के लालच में अपनी पत्नी को न सिर्फ प्रताड़ित करता है बल्कि अब तो आए दिन यह खबर आती ही रहती है कि दहेज के लिए बहू को जला दिया, काटकर फेंक दिया, प्रताड़ित होकर बहू ने आत्महत्या कर ली, घर से निकाल दिया, जहर खा ली, ट्रेन के नीचे आ गई, नदी में कूद गई, मारा-पीटा गया, लज्जित करना-जलील करना, दहेज के लिए खून के आंसू रो रही है बहू, आदि। लेकिन दहेज में क्यों नहीं मांगी कार...वाली खबर ने गंगा के बहने की दिशा ही बदल दी।

समय बदल रहा है, लोग बदल रहे हैं। इसके के साथ आज की बहू-बेटियां भी बदलती जा रही हैं। तुम्हारा बाप कितना पैसा गाड़ कर रखा है..क्या करेगा, ऊपर ले जाएगा क्या...कुछ मांग क्यों नहीं लाती। और नहीं लाओगी तो...। अब बात अंजाम की आ जाती है। और ऐसे में न जाने क्या क्या अनर्थ होने लगता है।

लेकिन इस खबर से क्या हमें मान लेना चाहिए कि दहेज का स्वरूप विकराल हुआ है लेकिन उसका रंग बदल गया है। जो बाप अपनी बेटी को विदा करने के पहले सबकुछ न्योछावर कर देता है और उसे ससुराल में हमेशा सुखी रहने की दुआ देता है आज वही बेटी अपने बाप की खुशियां छीनने के लिए पति को कोस रही है। अब फंस रहा है बेचारा पति। पति ने तो शादी के पहले यही सोचा होगा कि चलो सरकारी नौकरी है जो कुछ होगा अपने दम पर कर लेंगे। लेकिन उसकी सोच पर पानी फिर गया। पत्नी ने पति की गर्दन पर दोधारी तलवार रखकर पूछ ही लिया अब बताओ मेरे बाप से दहेज में कार क्यों नहीं मांगी थी। लेकिन यहां पर लड़की को दोषी ठहराना जल्दबाजी होगी क्योंकि समाज में पश्चिमी सभ्यता पूरी तरह से हावी हो चुकी है। और ऐसे में आज हर इंसान अपना दायरा भूलकर यह सोचने लगा है कि उसके पास जरूरत का हर सामान मौजूद हो। इसके लिए किसी भी रिश्ते का खून हो जाए तो हो जाने दो परवाह नहीं...।

Wednesday, June 29, 2011

सरकारी बिल्ली खा रही दूध की मलाई...

सुबह नींद में था तभी मकान मालकिन की तेज आवाज कानों में चुभने लगी। हालांकि यह पहली बार था जब मालकिन इतनी सुबह अपने आप से ही सवाल-जवाब किए जा रही थीं, वैसे तो उनकी दिनचर्या बड़े शांती के साथ बीतती थी लेकिन आज सुबह ऐसा क्या हुआ कि उनकी रफ्तार राजधानी एक्सप्रेस जैसी हो गई थी। अब तो यह सुनकर मेरी नींद में दरार आ गई और मैं आत्ममंथन में जुट गया।

उस मुद्दे की तलाश करने लगा कि आखिर हुआ क्या है, इसी बीच उनकी आवाज में थोड़ी तेजी आ गई। अब वे सरकार को गालियां देने में जुट गईं। भ्रष्ट हो चुकी है सरकार, निकम्मी है, इसके राज में कोई सुख-चैन नहीं ले सकता। आए दिन मंहगाई बढ़ रही है, दाम बढ़ रहे हैं, अभी फिर से दो रुपए दाम बढ़ा दिए लेकिन इसकी हालत सुधारने पर इनकी नानी मर जाती है, दूध और पानी में अंतर ही नहीं रहा।

अब तो क्वालिटी और खराब हो गई है, पहले मोटी मलाई पड़ जाती थी, घी-वी निकाल लेती थी, अच्छे से दही बन जाता था लेकिन अब तो लगता है जैसे सरकार के घर पर सारी मलाई चली जाती है। मुझे लगा कि दादी की बात में बहुत दम है, सचमुच यह मलाई कहीं तो जा रही है, कोई बिल्ली है जो यह मलाई चट कर रही है, वह चाहे सरकारी बिल्ली हो या फिर....। लेकिन अगर इसी तरह मलाई गायब होती रही और दाम बढ़ते रहे तो गरीब बेचारे तो गए काम से। उनके लिए दूध सपने की तरह हो जाएगा।

खैर सरकार से अच्छे तो हमारे पड़ोस के कल्लू चचा हैं जो कम से कम परिवार का पेट पालने के लिए दूध से मलाई निकालने और उसमें पानी का खेल खेलते हैं। लेकिन चचा का दूध और पानी में तालमेल कराने का अंजाद कुछ अलग ही है। सुबह गांव में जल्दी उठना और जानवरों की सेवा-सत्कार कर उनसे मेवा लेने के लिए बल्टी लेकर बैठ जाना, यह उनका नित्य कर्म था। इनका दूध बाजार में जाता था लेकिन गांव में चचा से दूध खरीदने के नाम पर लोग चार कदम दूर भागते थे।

लोगों का कहना था, ये दूध नहीं सिर्फ पानी बेचते हैं। मैंने जब उनसे दूध में पानी की बात पूछी तो जवाब बड़ा मजेदार मिला। वे कहते थे, ‘’क्या करें भईया, आजकल हमार भईंसिया खाना कम खात है और पानी ज्यादा पियत है, इहीं खातिर दूध पानी जैसा दिखत है। गर्मी बहुत पड़ रही है न, इहीं खातिर ईसब होत है। ठंड़ी आते ही सब ठीक हो जाई।‘’

एक दिन सुबह तड़के चचा की बल्टी खनकने से मेरी नींद खुल गई, मैं उठ बैठा और खिड़की से उनकी गतिविधियों पर नजर गड़ा दी। भैंस को खिलाने-पिलाने के बाद वे बाल्टी लेकर दूध निकालने बैठ गए। इसके बाद वे नल के नीचे अल्थी-पल्थी मार लिए। और फिर तो हद ही हो गई, उन्होंने एक हाथ बाल्टी में डाला, दूसरे हाथ से नल का हैंडल मारने लगे। बार-बार बाल्टी में हाथ डालकर वे दूध और पानी का अनुपात देख रहे थे। इस प्रयोग में उन्हें करीब पंद्रह मिनट लगे।

दूध और पानी में इंसाफ करके वे बड़े गर्व के साथ वहां से उठे ही थे कि मैं पीछे से पूछ बैठा, चचा...चचा ये क्या हो रहा था। दूध में पानी या पानी में दूध, आपने अंतर खत्म कर दिया। इसके बाद तो उनकी जो हालत हुई मैं बयां नहीं कर सकता, बेचारे शर्म के मारे पानी-पानी हो गए, गिड़गिड़ाने लगे कि यह बात किसी को बताना मत, मजबूरी में ऐसा करते हैं। कल से थोड़ा सुधार कर लूंगा। मैंने कहा ठीक है चचा। लेकिन दूसरे दिन फिर नल के नीचे दूध की बाल्टी।

बाद में पूछने पर चचा ने कहा कि क्या करें भईया ग्राहक की संख्या थोड़ी बढ़ गई, इसलिए ऐसा करना पड़ा। लेकिन कल्लू चचा के सामने यह करने की वजह कुछ और ही था। पर हमारी सरकार को आखिर किस परिवार का पेट पालना है जिसके लिए दाम बढ़ रहे हैं, मलाई गायब हो रही है। अगर ऐसे ही हर बरस दाम बढ़ाता रहा तो दूध सिर्फ शोरूम में देखने की चीज हो जाएगी। और ऐसे में अब सवाल यही है कि क्या सरकार ने भी बिल्लियां पाल रखी हैं जिसके लिए रोज मलाई मंगवानी पड़ती है?

Monday, April 11, 2011

कभी नहीं भूलेगी जश्न की वो रात

चौराहे पर पहुंचते ही आंखों को सहसा एक झटका लगा, ऐसा मालूम पड़ रहा था जैसे सपना देख रहा हूं। लेकिन वह जश्न सचमुच अभी तक की जिंदगी का सबसे बड़ा जश्न था। जिधर नजर जाती उधर सिर्फ लोगों का हुजूम ही दिखाई पड़ रहा था। कोई गांगुली की स्टाइल में शरीर से कपड़े उतार हाथ में लहरा रहा था तो कोई मोटरसाइकल पर खड़े होकर जश्न में अपनी भागीदारी दे रहा था। चौराहे पर ढोल-नगाड़े की गूंज के साथ हर कोई डांस में इतना मशगूल था कि रोड़ पर आने-जाने वाली गाड़ियों के पों...पों..की आवाज भी नहीं सुनाई पड़ रही थी। हम बात कर रहे हैं 2 अप्रैल 2011 की रात की। जिस दिन टीम इंडिया ने श्रीलंका को पटखनी देकर 28 साल के सूखे को हरा भरा कर दिया। वर्ल्डकप जीत के साथ टीम इंडिया ने जैसे ही वर्ल्डकप पर एकाधिकार जमाया वैसे ही पूरा देश और देश के बाहर रह रहे हमारे एनआरआई भाईयों ने जश्न मनाना शुरु कर दिया। जीत का ऐसा जश्न तो आज तक मैंने नहीं देखा। मैं उस समय ऑफिस में ही था। रात तकरीबन 12 बजे मैच जीत की कुछ साइड स्टोरी लगाने के बाद ऑफिस के बाहर निकला। सुबह ऑफिस जल्दी आना था इसलिए घर निकलने का मन बनाया। लेकिन मेरे कुछ मित्रों (पाशा और संजीव) ने जीत के जश्न को शहर में देखने का मन बनाया। काफी ना नुकुर के बाद मैं भी तैयार हो गया और एक टू व्हीलर पर थ्री लोग सवार हो जश्न मनाने निकल पड़े। यह टीम इंडिया की जीत नहीं थी हर भारतीय की जीत थी। ऐसे में भला मैं अपने आपको कैसे रोक पाता। रोड़ पर हाथ लहराते, नारे लगाते हुए हम निकल पड़े। सड़क पर हर आने जाने वाला शख्स भारत माता की जय...जैसे कई नारे लगा रहा था। हम जैसे ही डीबी सिटी पहुंचे वहां का नजारा देखने लायक था। ऐसे लग रहा था जैसे पूरा देश जीत का जश्न मनाने यहां पर इकट्ठा हो गया है। इतनी भीड़ किसी चुनावी रैली और समारोह में भी नहीं दिखती जितनी यहां पर मौजूद थी। सभी नाच रहे थे, रंग-अबीर-गुलाल उड़ रहा था। दिवाली पर भी आकाश में इतना रंगीन नजारा नहीं दिखता जितना आज था। हर सेकेंड में ऐसे लग रहा था जैसे खुद भगवान ऊपर से रंगीन फूलों की बारिश कर रहे हैं। उस दिन मैं इतना खुश था कि बयां नहीं कर सकता। उस भीड़ में हालांकि मैं घुसा नहीं बस दूर खड़े होकर उस जश्न को अपनी खुली आंखों में कैद कर रहा था। मेरे दोनों दोस्त लोगों के साथ भंगड़ा कर रहे थे। वो नजारा ऐसे था जैसे धरती पर स्वयं भगवान उतर आएं हो और जश्न हो रहा हो। उस रात मुझे नहीं लगता किसी घर में कोई रुका होगा। मैं भोपाल में जहां-जहां भी घूमा मुझे परिवार के संग लोग जीत का जश्न मनाते हुए दिखे। क्या बूढ़े-क्या जवान सभी मानों एक ही रंग में रंग गए हों। डीबी सिटी के बाद न्यू मार्केट की तरफ हम गए उसके बाद फिर कहीं जाने की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि ऐसा जश्न देखने के बाद मैं अपना होश ही खो बैठा था। ऐसी खुशी और जश्न में जिस ढंग से भोपाल डूबा था उसे देखकर तो यह अंदाजा लग गया कि आज हर घर में दिवाली मन रही होगी। इतना घूमने फिरने के बाद अब थोड़ा भूख लग आई थी लेकिन कहीं खाने की दुकान नहीं दिखी, सभी दुकान बंद करके खुशियां मना रहे थे। काफी घूमने-फिरने के बाद एक जगह भोजन की दुकान दिखी। अंदर काफी देर बैठने के बाद थोड़ा खाना नसीब हुआ। लगभग 3 बजे रात घर पहुंचा। वाकई में वो रात यादगार बन गई।

Saturday, February 19, 2011

मिलकर करो दुआ - वर्ल्डकप पर हो हमारा कब्जा

इस समय एक अरब से ज्यादा भारतीयों की ख्वाहिश है कि टीम इंडिया वर्ल्डकप ले ही आए। इसके लिए पूरा देश मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च के साथ अपने-अपने देवी-देवता के आगे नतमस्तक होकर बस यही मांग कर रहा है कि किसी तरह से इस बार हमें निराश न होना पड़े और हमारी झोली में यह तोहफा आ ही जाए।

खैर इसके लिए तो धोनी सेना पूरे दमखम के साथ लग गई है। पहले अभ्यास मैच में कंगारुओं को पटखनी दी और उसके बाद किवी को चित्त किया। सबसे बड़ी बात आज जिस तरह से हमारे सभी खिलाड़ियों ने बेहतरीन बल्लेबाजी का नजारा दिखाया उससे यह तो साफ दिखता है कि हम मंजिल को पाने के लिए हम बेताब दिख रहे हैं।

तो आईए हम सब मिलकर यह दुआ करें कि टीम इंडिया और पूरे देश का सपना पूरा हो और वर्ल्डकप हमारा हो। जय हिंद...।