Tuesday, July 5, 2011

चाय-पकौड़ों के बीच बारिश की वो गुदगुदाती यादें

गर्मी हो-सर्दी हो या फिर बारिश, सब अपने-2 समय में अपनी दबंगई दिखाने में जरा भी पीछे नहीं रहते। बिना एक दूसरे के सब अधूरे हैं। पकृति ने एक ऐसा सिस्टम बना दिया है कि सब अपने समय पर और बिन बुलाए मेहमान की तरह आ ही धमकते हैं। सर्दी के बाद गर्मी और उसके बाद बारिश सब का अपना एक अलग ही मजा है, जैसे बाजार में तरह-तरह की मिठाईयों का स्वाद होता है उसी तरह बदलते मौसम का मिजाज किसी मिठाई से कम नहीं होता है। और इसका स्वाद लिए बिना कोई नहीं रह सकता।


इस समय देश में बारिश का मौसम चल रहा है। मुझे तो भई बारिश उतनी अच्छी नहीं लगती लेकिन विरोध भी तो नहीं कर सकते। भोपाल में भी बारिश की पहली किस्त का हिसाब-किताब शुरु हो गया है। कभी रिमझिम तो कभी तेजी के साथ आसमान से पानी की बूंदों के गिरने के नजारे को कैद करने के लिए लोग न सिर्फ घरों से निकले बल्कि सबने भींगना भी पसंद किया।

करें भी क्यों नहीं पहली बारिश जो है, हर पहले सामान का अपना एक अलग ही मजा होता है। इतनी लबलबाती गर्मी के बाद राहत की बूंदों से भला कौन भागेगा। अब दुकानों की कड़ाहियों में तेल हरवक्त गर्म होता रहता है और हर आदमी में ऐसे समय पकौड़ों की चाह बढ़ जाती है। बदन में हल्की सी सिहरन और उसे दूर करने के लिए गर्मागर्म चाय और साथ में भंजिया मिल जाए तो वाह...वाह..क्या कहने। और ऐसे में बारिस-चाय-भंजिया के साथ पुरानी यादों को जहन में उतार लो तो वह सोने पर सुहागा हो जाता है।


भई आपके साथ कोई यादें जुड़ी हो या न जुड़ी हो लेकिन मैं तो उस बारिश को कभी नहीं भूल पाऊंगा। मैं बात कर रहा हूं मुंबई के बारिश की। बारिश में भीगते हुए 35 किलोमीटर दूर से आना, ऑफिस में आकर कपड़े बदलना, गर्मागर्म भंजिया मंगाकर खाना, दोस्तों संग ठहाके लगाकर चाय की चुस्कियां लेना आ..आहा..क्या मजा आता था, वाह गुरु...वो भी क्या बिंदास लाइफ थी। ऑफिस में आने वाला हर शख्स भीग जाता था लेकिन सभी मस्ती में डूबे रहते थे।

कैसी भी बारिश हो लोग ऑफिस आना नहीं छोड़ते थे। हमारी मैडम भी उन्हीं वीरों में से एक थी। वो जितनी वीर थी उतनी ही धाकड़, जिनसे पूरा ऑफिस अंदर ही अंदर डरता था। भीषण बारिश में ऑफिस आने के लिए तो मैडम के ऊपर जैसे भूत सवार हो जाता था। चाहे कितनी ही भीषण पानी की धार गिर रही हो वो ऑफिस पहुंच ही जाती थीं। एक बार तो उनके साथ बड़ा मजेदार वाकया हुआ। भयंकर बारिश, हर तरफ पानी ही पानी, छोटी गाड़ियां भी पानी में डूब गईं, बसों के पहिए थम गए, ट्रेंनों की आवाजाही चींटियों की तरह हो गई।

हमारी मैडम ऑफिस से करीब 5 किलोमीटर दूर ही रहती थीं, वैसे तो वो अक्सर अपनी मारूती एट-हंड्रेड से आती थी लेकिन उस दिन मैडम का पैर-कभी आगे कभी पीछे आ जा रहा था। ऑफिस में फोन करके हम सब का हालचाल वे हर मिनट ले रहीं थीं। लेकिन उनका दिल नहीं मान रहा था और वे घर के बाहर एक छतरी लेकर निकल पड़ीं।

बाहर आकर वे ऑटो रिक्शे का इंतजार करने लगीं लेकिन काफी देर बाद पता चला कि जो जहां है वहीं जम गया है, सबके पहिए बंद पड़े हैं। लेकिन हमारी मैडम भी कहां पीछे रहने वाली थी, उनका आत्मविश्वास जाग उठा और उन्होंने अपने कदम आगे बढ़ा दिया। कुछ दूर जाने पर एक ब्रिज पड़ता था, जिसके नीचे उस दिन मानो समुंद्र की धार फूट गई हो, उधर से हर कोई आना जाना बंद कर दिया था, क्योंकि पानी का बहाव बहुत ज्यादा था।

अब मैडम को कौन समझाए कि जब सब नहीं जा रहे तो आप भी अपना कदम पीछे खींच लेती, ऑफिस जाकर कौन सा तीर चला लेती। वे पानी की तेज धार में अपने कदम को रख दिया, उन्हें लगा कि उनका पैर हनुमान जी का पत्थर है, जो पानी में रखते ही रुक जाएगा लेकिन ऐसा उनका सोचना उस समय पानी-पानी हो गया जब वे थोड़ी दूर बिना हाथ-पैर मारे डूबती-चिल्लाती हुई पहुंच गई। उस समय किसी राहगीर ने उनका हाथ थामा, अरे भई हाथ थामने का गलत अर्थ न निकालना, उसने हाथ थामकर सिर्फ उन्हें पानी से बाहर निकाला और कुछ नहीं।

अब उनकी सांस ऊपर-नीचे और दिलों की धड़कने तेज हो गई थी, एक तो सबसे बड़ी बात हमारी मैडम शरीर से थोड़ी कमजोर थी। तभी तो वो पानी पर भारी न पड़ सकीं। भला हो उन भाई साब का जिसने हमारी मैडम की डूबती नैया को सहारा दिया लेकिन बाहर आने के बाद मैडम कंगाल हो चुकी थीं। कहने का मतलब, उनके छाते का ढांचा पूरी तरह से बिगड़ गया था और उनके एक पैर का चप्पल भी किसी और के पैर की शोभा बढ़ाने निकल लिया था।

इतनी आफत के बाद भी मैडम झांसी की रानी की तरह आगे बढ़ती गईं। एक हाथ में एक चप्पल, दूसरे हाथ में टूटा हुआ छाता, आखिर इतने संघर्ष की कोई तो निशानी चाहिए थी न। लोगों के पूछने पर आखिर किस मुंह से वे अपने संघर्ष की कहानी बयां करती। गिरते-पड़ते दोपहर के करीब दो बजे मैडम ऑफिस पहुंच ही गईं। वे पूरी तरह से थर-थर कांप रही थी, अंदर प्रवेश करते ही उन्होंने टूटा छाता मुझे पकड़ाया, बचा हुआ एक चप्पल चपरासी बेचारे को दे दिया, अब भला बताईए उस एक चप्पल का वह क्या करता, कोई प्रदर्शनी में लगाना था उसे जो थमा दिया। अब इस समय मैम कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी। उनकी हालत देख ऑफिस के लोग आसपास मधुमक्खियों की तरह घेरा बना लिए।

सबने यही कहा कि आपको क्या जरूरत थी यहां आने की। आप तो घर बैठे भी लैपटॉप पर काम कर सकती थीं। लेकिन मैडम को तो मिशाल कायम करनी थी। खैर उनका कांपना रुक नहीं रहा था, आनन-फानन में कैंटीन वाले ने गर्मा-गर्म चाय लाया, तीन-चार कप चाय चढ़ाने के बाद मैडम की जान में जान आई। मैडम को सही सलामत देख और मौका ताड़कर हमने भी गर्मागर्म पकौड़ी और चाय का ऑर्डर दे मारा क्योंकि पैसा मैडम के खाते में लिखवाना था।

अरे भई हम भी तो इंसान है, हमें भी ठंड़ी लग रही थी। इसके बाद गप्पसड़ाका करते हुए, खाते-पीते मौज मस्ती करते हुए सब अपने-अपने काम में लग गए। (बारिश के इस संघर्ष की कहानी जैसा मैडम ने ऑफिस आकर बताया था)।

खैर यह तो आज भी हम लोग करते हैं, भोपाल की बारिश को चाय और यादव के पकौड़े के साथ इंज्वाय करते हैं। लेकिन इतना जरूर है भारी बारिश में तर-बतर होकर मैडम की तरह ऑफिस आने का जोश अब यहां नहीं दिखता। अरे दिखेगा भी कैसे यहां की रोड़े जो पूरी तरह से सिमेंटेड हैं। हालांकि भोपाल के बाहर का नजारा हिला हुआ है जो बारिश में अपने नये स्वरूप को छोड़ पूर्वजन्म में चली जाती है।

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